Thursday, 1 July 2021

खोड़ी गाँव

अडाणी को 1 लाख 70 हज़ार एकड़ प्राचीन जंगल माइनिंग के लिए सौंप देने वाली मोदी सरकार फ़रीदाबाद में दशकों से बसे हज़ारों घरों को वन संरक्षण के नाम पर उजाड़ रही है!

कॉरपोरेट घरानों के लिए देशभर में लाखों हेक्‍टेयर जंगलों और पर्यावासों की तबाही पर आँखें मूँदे रहने वाला सुप्रीम कोर्ट और बिल्‍डरों के हाथों अरावली की पहाड़ियों का नाश करवाने वाली हर‍ियाणा सरकार डेढ़ लाख से भी ज़्यादा आबादी को कोरोना काल में बेघर करने पर आमादा!!

पिछले महीने की सात तारीख़ को सुप्रीम कोर्ट ने दिल्ली-हरियाणा सीमा पर फ़रीदाबाद ज़ि‍ले के लाल कुआँ इलाके स्थित खोड़ी गाँव के दस हज़ार से ज़्यादा घरों को बिना किसी पुनर्वासन या मुआवजे के तोड़ने का फ़ैसला फिर से दुहराया। अपने निर्णय पर अड़े रहते हुये हरियाणा सरकार व फरीदाबाद नगर निगम को छह हफ़्ते के अन्दर बेदख़ली प्रक्रिया पूरी करने का निर्देश दिया है। 

गाँव को उजाड़ने के लिए सुप्रीम कोर्ट के आदेश के खिलाफ़ कल एक जुझारू प्रदर्शन किया गया। बिगुल मज़दूर दस्ता सहित विभिन्न जन संगठनों के कार्यकर्ता भी खोड़ी की मेहनतकश वाम को समर्थन देने के लिए प्रदर्शन में शामिल हुए थे। खट्टर की पुलिस ने प्रदर्शनकारियों पर बर्बर लाठी चार्ज किया और सात लोगों को हिरासत में ले लिया जिन्‍हें देर रात छोड़ा गया। गाँव तक जाने के रास्‍तों पर भारी पुलिस बैरीकेडिंग की गयी है।

सुप्रीम कोर्ट के फ़ैसले के अनुसार खोड़ी गाँव अरावली पर्वत श्रृंखला के जंगलों का हिस्सा है और यहाँ बसे दस हज़ार से ज़्यादा घर सरकारी ज़मीन पर अवैध अतिक्रमण हैं। पंजाब भूमि संरक्षण अधिनियम 1900 का हवाला देकर सुप्रीम कोर्ट ने कहा है कि अरावली जंगलों का हिस्सा होने के कारण यहाँ के सभी मकान ग़ैर क़ानूनी हैं और जंगल व भू-संरक्षण के हित में मकानों के निवासियों को वहाँ से हटाये जाने का फ़रमान ज़ारी किया है। तथ्‍य यह है कि इस क्षेत्र में दस हज़ार ही नहीं बल्कि इससे बहुत अधिक संख्‍या में घर हैं जिनमें डेढ़ लाख से अधिक की आबादी रहती है। हालाँकि फरीदाबाद नगर निगम सितम्बर 2020 में 1700 झुग्गी और अप्रैल 2021 में 300 से ज़्यादा झुग्गियों पर बेरहमी से बुलडोज़र चला चुकी है लेकिन सुप्रीम कोर्ट इस जनता को उनके घर बार से वंचित करने की इस गति से संतुष्ट नहीं है। यद्दपि जन दबाव के कारण हरियाणा सरकार अब तक सभी झुग्गियों को उजाड़ने में असफल रही है लेकिन सुप्रीम कोर्ट के इस आदेश पर कि किसी भी प्रकार का बल प्रयोग कर जनता को यहाँ से हटाया जाए, अब प्रशासन बंदूक की नोक पर झुग्गियों को तोड़ने के लिए एक बार फिर कमर कस चुका है। सुप्रीम कोर्ट यहाँ की आम मेहनतकश आबादी के पुनर्वासान को कोई पुख्‍़ता इंतज़ाम किये बगैर लगातार झुग्गियाँ उजाड़ने के लिए हरियाणा सरकार पर दबाव बना रहा है, साथ ही यहाँ की जनता को 'अतिक्रमणकारी' बताते हुए यह इशारा कर रहा है कि इन्‍हें पुनर्वासन की कोई सुविधा नहीं मिलनी चाहिए। 

खोड़ी गाँव के बसने की शुरुआत 1970 के दशक में हुई थी। पिछले पचास सालों से यहाँ के भू माफ़िया और दलाल मेहनतकश मज़दूर आबादी को यह सरकारी ज़मीने गैरक़ानूनी रूप से बेचते रहे। पास के पत्थर खदानों में काम करने वाले मज़दूरों ने यहाँ की असमतल भूमि को अपने हाथों से समतल बनाया, गड्ढों और खाईयों को भरकर अपने मकान बनाये। बेहतर रोज़गार की तलाश में गाँव से शहरों में आने वाले प्रवासी मज़दूर भी खोड़ी गाँव में लगातार ज़मीन ख़रीदकर बसते रहे। यहाँ की मेहनतकश आबादी ओखला, बदरपुर और फरीदाबाद औद्योगिक क्षेत्रों में अपना हाड़-माँस गलाती है।

 मज़दूर मेहनतकश आबादी के यहाँ बसने की प्रक्रिया में मुनाफा पीटने वालों में पुलिस, वन विभाग, फरीदाबाद नगर निगम और हरियाणा सरकार  सभी शामिल थे। और यह बसाहट ही इनकी मिली भगत से हो रही थी। स्थानीय लोगों का कहना है कि अगर यहाँ कोई अपने घर में एक ईंट भी कभी जोड़ता है तो पुलिस आकर उससे हज़ारों रुपये की वसूली कर ले जाती है। यहाँ के ज़्यादातर निवासियों के पहचान पत्र खोड़ी गाँव  के पते पर ही बने हैं। इनके पास यहाँ का ही चुनाव पहचान पत्र है और ये चुनावों में मतदान भी करते आ रहे हैं। कई घरों को सरकारी बिजली और पानी की सुविधाएं भी उपलब्‍ध हैं। इन तथ्यों के आधार पर खोड़ी गाँव के निवासियों का यह सवाल जायज़ है कि अगर उनके मकान ग़ैर कानूनी थे तो उन्हें ये सारी सरकारी सुविधाएँ और क़ानूनी पहचान हासिल कैसे हुईं? और अगर अरावली के जंगलों में होने के कारण यहाँ कोई भी निर्माण ग़ैरकानूनी था तो सरकार ने पचास साल इन घरों को बनने ही क्‍यों दिया? जब ये गाँव बस रहे थे तब सरकार और न्यायालय ने भू-माफ़ियाओं को क्यों नहीं रोका? जब मज़दूर मेहनतकश आबादी ने खून-पसीने की कमाई, कर्ज़-उधार लेकर, अपने गाँव के घर-मीन बेचकर ज़मीन ख़रीदा तो न्यायालय और सरकार को अब यह भूमि अतिक्रमण लगने लगा है? इसी अरावली जंगल के इलाके में बनें पाँच-सितारे होटल, शॉपिंग काम्प्लेक्स, फार्म हाउस आदि पर तो सुप्रीम कोर्ट को कोई आपत्ती नहीं है, उनके खिलाफ़ तो कोई कार्रवाई नहीं हो रही है। 

यह बात समझने में ज़्यादा कठिन नहीं है कि सरकार और न्यायालय मेहनतकश जनता के झुग्गियों के प्रति और बड़े-बड़े पूँजीपतियों के पाँच-सितारे होटल और शॉपिंग काम्प्लेक्स आदि के प्रति दोहरा रवैया क्यों अपना रही है। सरकार, न्यायालय, पुलिस, वन विभाग आदि सभी इस पूँजीवादी राज्य तंत्र के ही अलग अलग पुर्जे हैं जिनका बस एक ही मकसद है - अपने पूँजीपति आकाओं का हित साधना, चाहे इसके लिए उन्हें मेहनतकश जनता के बच्चों पर बुलडोज़र ही क्यों न चलाना पड़े। 

दक्षिण दिल्ली से सटा ओखला व फरीदाबाद जैसे बड़े औद्योगिक क्षेत्रों के बीच पड़ने वाला खोड़ी गाँव का इलाका बड़े पूँजीपतियों के लिए सोने की चिड़िया से कम नहीं है। आज जब दिल्‍ली सरकार दिल्‍ली से सभी मैन्‍युफैक्‍चरिंग युनिट हटाने की बात कर उसे सर्विस सेक्‍टर में बदलने की बात कर रही है तो दिल्‍ली से लगा यह क्षेत्र उद्योगपतियों के लिए सुनहरा अवसर है। यही कारण है कि बहुत पहले से ही हरियाणा सरकार हज़ारों घरों को रौंद कर इस पूरे इलाके को पूँजीपति आकाओं को भेंट देने के फ़िराक में है। सुप्रीम कोर्ट ने इस काम को सुगम बना दिया है। यह बात समझनी होगी कि खोड़ी गाँव का यह मामला जनता और पर्यावरण के बीच का अन्तर्विरोध नहीं है, बल्कि पूँजी और श्रम के बीच का अन्तर्विरोध है। पर्यावरण संरक्षण अगर असली मुद्दा होता तो सुन्‍दरवन मैन्‍ग्रोव को पूँजी का खुला चारागाह नहीं बनने दिया जाता और न ही उत्तराखण्‍ड के पहाड़ों-जंगलों को बिना पर्यावरण नुकसन का मूल्‍यांकण किये रिलायन्‍स को सुपुर्द कर दिया गया होता।  

सुप्रीम कोर्ट के पिछले महीने के आदेश के बाद हरियाणा सरकार ने पूरे गाँव को एक पुलिस छावनी में तब्दील कर दिया है। गाँव से अन्दर और बाहर निकलने के रास्तों पर पुलिस की सख्‍़त नाकाबन्दी है। लोगों को इस गर्मी में परेशान करने के लिए पूरे गाँव में एक महीने से बिजली और पानी काट दिया गया है और यहाँ तक की मोबाइल नेटवर्क को भी इतना सीमित कर दिया गया है की फ़ोन पर बात करना भी मुश्किल है। 

महामारी और अनियोजित लॉकडाउन के कारण बेरोज़गारी और भुखमरी से पहले ही जूझ रही जनता के ऊपर यह एक और गाज आ गिरी है। इस भीषण गर्मी और महामारी के दिनों में बच्चों, बीमार बुजुर्गों और गर्भवती महिलाओं को बिजली और पानी से महरूम रख कर तड़प तड़प कर मरने के लिए मज़बूर करना इस न्याय व्यवस्था और सरकारों की मानवद्रोही चरित्र को नंगा कर देता है। ऑनलाइन शिक्षा के आज के समय में बिना मोबाइल चार्ज किये या नेटवर्क के पढ़ाई करना नामुमकिन है। आप सोचिये कि क्या मोबाइल नेटवर्क को काट कर यह सरकार और न्यायालय इन मज़दूर-मेहनतकशों के बच्चों की ज़िंदगियाँ बर्बाद नहीं कर रही है? 

सरकार और न्यायालय की इस अमानवीय बर्ताव के देख कर त्रस्त हो गाँव के पाँच निवासियों ने आत्महत्या कर ली है और एक बुजुर्ग की गर्मी से मौत हो गयी। ये आत्महत्या या मौत नहीं हैं बल्कि पूँजीवादी राज्य के द्वारा की गयी निर्मम हत्याएँ हैं।  नाकेबन्दी के साथ साथ गाँव में पुलिसिया दमन भी जारी है। पुलिस ने अब तक सामाजिक कार्यकर्ताओं और और गाँव के मुखर प्रतिनिधियों समेत दर्जनों लोगों को गिरफ़्तार कर लिया है। पुरे गाँव में एक दहशत का माहौल छाया हुआ हे। आये दिन पुलिस अपने मुखबिरों को सादे कपड़े और पत्रकार के रूप भी में गाँव में भेज रही है। इस पुलिसिया दमन और क्रूर अमानवीय नाकेबन्दी के वावजूद खोड़ी गाँव की मज़दूर-मेहनतकश आबादी अपने घरों को बचाने के लिए डट कर खड़े हैं और इसके लिये वे बंदूक, बुलडोज़र और राज्य के किसी भी हत्कण्डों से लड़ने के लिये तैयार हैं।    

मज़दूर साथियो ! खोड़ी गाँव की यह लड़ाई बस अकेली उस गाँव की लड़ाई नहीं है। यह समूचे मज़दूर और  लड़ाई है। हर दिन देश के कई शहरों में मज़दूर-मेहनतकश जनता की झुग्गियों को तोड़ कर उसे सड़कों पर बेसहारा छोड़ दिया जाता है। कभी जंगल के नाम पर तो कभी रेलवे के नाम पर, कभी मेट्रो के नाम पर तो कभी चौड़ी सड़क के नाम पर, इस व्यवस्था के पास हमें बेघर करने के हज़ारों बहाने तैयार होते हैं। आज हमें अपने आवास के अधिकार के लिए एक साथ मिलकर सड़कों पर उतरना होगा। आवास के अधिकार की लड़ाई जीने के अधिकार के साथ जुड़ा हुआ है और यह एक मानवीय जीवन का मूलभूत शर्त है। आज समय आ गया है की हम यह ऐलान करें की हम कोई जानवर या मशीन नहीं हैं, हम भी इंसान हैं और सम्मानपूर्वक ज़िन्दगी जीना हमारा अधिकार है। इस अधिकार को हमसे कोई नहीं छीन सकता।
Mjdur vgul


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