दुनिया के मजदुरो, एक हो!
गणतंत्र दिवस पर एक संकलन
अनुक्रमिका
1. आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर - साहिर
2. सभी समरस बनें!- वंदना चौबे
3. भात-भात कह भूख से मरते बच्चों के देश में गणतंत्र दिवस मनाने की सार्थकता? अजय असुर
4. विद्वान अधिवक्ताओं एवं समस्त नागरिकों से अपील-
सूर्यदेव सिंह ‘‘एडवोकेट’’
5. इसे व्यवस्था परिवर्तन की लडाई में बदलना होगा- संदीप कुमार
6. आर्थिक जनतंत्र की स्थापना ही सामाजिक समानता की कुंजी है- व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से प्राप्त ज्ञान
7. भात-भात कह भूख से मरते बच्चों के देश में गणतंत्र दिवस मनाने की सार्थकता? निर्मल कुमार शर्मा
8. तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी? अजय असुर
9. कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है?* आलोक रंजन, आनंद सिंह
10. गणतंत्र दिवस पर "नागार्जुन" की एक कविता
11. लोकतंत्र के संदर्भ में अशोक चक्रधर की कविता
12. ठिठुरता हुआ गणतंत्र -हरिशंकर परसाई
13. 'ठिठुरता हुआ गणतंत्र' का पाठ का लिंक
14. 2023 के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर - विजय दलाल
15. संविधान - पाश
16. गणतंत्र के अवसर पर- एम के आज़ाद
1. आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर
साहिर ने “ छब्बीस, जनवरी “ के नाम से एक नज़्म लिखी थी जो आज भी सही प्रतीत होती है । देश ने बहुत प्रगति कर ली है लेकिन आज भी ग़रीबी , बेरोज़गारी , मज़हब , जाति भेद ज्यों की त्यों बनी हुई है।
नज़्म पेश है -
आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर
देखे थे हम ने जो वो हसीं ख़्वाब क्या हुए
दौलत बढ़ी तो मुल्क में अफ़्लास क्यूँ बढ़ा
ख़ुश-हाली-ए-अवाम के अस्बाब क्या हुए
जो अपने साथ साथ चले कू-ए-दार तक
वो दोस्त वो रफ़ीक़ वो अहबाब क्या हुए
क्या मोल लग रहा है शहीदों के ख़ून का
मरते थे जिन पे हम वो सज़ा-याब क्या हुए
बे-कस बरहनगी को कफ़न तक नहीं नसीब
वो व'अदा-हा-ए-अतलस-ओ-किम-ख़्वाब क्या हुए
जम्हूरियत-नवाज़ बशर-दोस्त अम्न-ख़्वाह
ख़ुद को जो ख़ुद दिए थे वो अलक़ाब क्या हुए
मज़हब का रोग आज भी क्यूँ ला-इलाज है
वो नुस्ख़ा-हा-ए-नादिर-ओ-नायाब क्या हुए
हर कूचा शोला-ज़ार है हर शहर क़त्ल-गाह
यक-जहती-ए-हयात के आदाब क्या हुए
सहरा-ए-तीरगी में भटकती है ज़िंदगी
उभरे थे जो उफ़ुक़ पे वो महताब क्या हुए
मुजरिम हूँ मैं अगर तो गुनहगार तुम भी हो
ऐ रहबरना-ए-क़ौम ख़ता-कार तुम भी
——साहिर लुधियानवी
( गणतंत्र दिवस पर विशेष प्रस्तुति )
2. सभी समरस बनें!- वंदना चौबे
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【आज के दिन अपनी ही एक कविता】
सभी समरस बनें!
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उनके बीच बस कुर्सी भर की दूरी थी
कुर्सी के उधर पढ़ाने वाला
और कुर्सी के इधर पढ़ने वाले
पढ़ाने वाले पढ़ाते रहे पढ़ने वाले पढ़ते रहे-
'भारतीय लोकतंत्र'
एक लोकतांत्रिक संस्थान के
कार्यालय में काम करने वाले काम करते-करते
उलझ जाते एक दूसरे से कि बाक़ी जो करिए साहब
लेकिन सब कुछ इन राइटिंग दीजिए
वहीं पर्यावरण की चिंता में कमज़ोर होती
नई शिक्षा नीति कागज़ों पर लिख-लिख कर
पेपरलेस काम करने के आदेश देती थी
झाड़ू लगाने वाला बरामदों में झाड़ू लगाता रहा
मेहतरानी समय पर कभी भी
बाथरूम साफ़ न रखने के लिए डाँट खाती रही
चपरासी यहाँ-वहां दौड़ दौड़कर चाय-पानी पहुंचाता रहा
माली ताउम्र बगीचे के बीच पानी का पाइप लिए ही मिला
इतना सुगठित कि सब कुछ व्यवस्थित रहा
तब सेवा-निवृत्ति के लिए विदाई समारोह था
क्या अध्यापक-अधिकारी क्या मातहत
क्या क्लर्क क्या मेहतर
सभी अपने-अपने काम के अनुरूप श्रेणीबद्ध ढंग से बैठे थे
सबको हार-उपहार से नवाज़ा गया
इतना बड़ा पद और ऐसा सादा जीवन!
ऐसे ही एक पदाधिकारी ने देश के विकास पर सस्वर सुंदर भाषण दिया
और सभी भावुक हो गए
यह लोकतंत्र ही था कि चपरासी तक ने अपनी बात रखी
जो चुटकुले में रुपांतरित हो गई
और भावुक मन थोड़ा रंजक हुआ
वैसे वह था भी लापरवाह और कुछ बेवकूफ़ किस्म का
हुआ यह भी कि अपनी ही सेवा-निवृत्ति के
उत्सवी माहौल के दिन भी जाने कौन धुन में
मेहतरानी महारानी सुबह ही अपने काम पर आ गईं
किसी तरह उन्हें नियत स्थान पर बिठाया गया
हार-उपहार दिया गया
और अब तक के सेवा-काल पर
अपने अनुभव साझा करने के लिए कहा गया-
इतने समान-सम्मान भाव से दबती हुई
उसने मुस्कुरा कर कहा-
'हम्मैं ना सुझायल कि आज से हमके काम न करै के हव!
हम्मैं लगल कि इ सब नक्सा-पालिस एक ओर बाकिर ई कुल कमवा तो हमके करहीं क होइ!!
के करी?'
[मुझे पता ही नहीं चला कि आज से मुझे काम नहीं करना है। मुझे लगा यह सब साज-सजावट एक ओर लेकिन मुझे यह सब काम तो करना ही पड़ेगा!!
कौन करेगा?]
हमारे समय का मुहावरा था लोकतंत्र में सभी बराबर हैं
अब कहीं कोई जात-पात नहीं है
आंबेडकर ने जाति पर नहीं समरसता पर काम किया था
इसलिए अब देश आज़ाद है
देश मे लोकतंत्र है
और अब कोई जातिवाद न करे
जाति आधारित मतदान न करे
सभी समरस बनें!
धर्म की जय हो!
अधर्म का नाश हो!!
वंदना चौबे 2016
xxxxxxxx
लोकतंत्र संविधान और समरसता हमारे समय का सबसे बड़ा मजाक है!
क्या वर्गों में बंटे समाज में सबों के लिए लोकतंत्र संभव है?
क्या वर्गों में बंटे समाज में समरसता संभव है?
नरेंद्र कुमार की टिप्पणी
3 *भात-भात कह भूख से मरते बच्चों के देश में गणतंत्र दिवस मनाने की सार्थकता?*
73 वर्ष पहले 26 जनवरी 1950 के दिन भारत में भारत का संविधान लागू हुआ। जिसके उपलक्ष्य में हर वर्ष 26 जनवरी के दिन शासक वर्ग गणतंत्र दिवस के रूप में मनाता है और जनता पर इसे राष्ट्रीय त्यौहार के रूप में थोप देता है।
अभी तक यही पढ़ाया और बताया गया है कि 'गणतंत्र दिवस' जनता के लिये है। गणतंत्र का मतलब जनता का तंत्र! पर इस गणतंत्र में मेहनतकश जनता की क्या स्थिति है किसी से छिपा नहीं। गण मतलब जन समूह यानी जनता और तंत्र मतलब शासन व्यवस्था यानी जो शासन जनता द्वारा जनता के लिए हो। अब इसको इस तथाकथित गणतंत्र को इस हिसाब से कसेंगे तो पाएंगे कि मुट्ठीभर लोगों द्वारा मुट्ठीभर भर लोगों के लिये, मुट्ठीभर लोगों का शासन एकदम सटीक बैठता है और यही भारत की मौजूदा गणतंत्र में सटीक बैठता भी है।
1947 के बाद भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रभुत्व खत्म हो गया मगर अमेरिकी साम्राज्य के नेतृत्व में ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, फ्रांस, इटली, कई साम्राज्यवादी देश हमारे भारत देश के ऊपर कई असमान समझौते थोपकर हमारे देश को अप्रत्यक्ष तौर पर गुलाम बनाए हुए हैं। भाजपा और कांग्रेस की सरकारों द्वारा विदेशी लुटेरों के साथ किये गये असमान समझौतों के अधीन रहने से हमारा देश कई साम्राज्यवादी देशों का अर्धउपनिवेश बना हुआ है। लेमोआ, कामकासा, सिस्मोआ, बेका जैसे सैकड़ों असमान समझौते तथा भारतीय संविधान का अनुच्छेद 363 इसका जीता जागता प्रमाण हैं। इसको हम यूं समझ सकते हैं कि 1947 में आजादी के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के गोरों की गुलामी से मुक्ति तो मिल गयी पर उसके बाद उसी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के काले दलालों के हाथों में सत्ता आ गयी। जिससे यह गणतंत्र भी चन्द लोगों और परिवार में सिमट कर रह गया नतीजा असमानता की गहरी खाई बढ़ती गयी और जिससे आज आजादी के 75 वर्ष और गणतंत्र के 73 वर्ष बाद, एक तरफ भूख से बिलबिलाते हुए लोग सन्तुलित आहार तो बहुत दूर की बात पेट भरने के लिये 'भात-भात की रट लगाए हुए' भूख से दम तोड़ रहे हैं। किसान अपनी फसलों की लाभकारी मूल्य तो दूर की बात न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिये दिल्ली की सड़कों पर 380 दिन बैठने को मजबूर हुए और सरकार के आश्वासन के बाद सड़क से वापस घर गये पर अपने वादे के एक साल बीतने पर भी शासक वर्ग किसानों के फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी नहीं दे पा रहा है। जिससे आज भी किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं।
यह गणतंत्र देश के लगभग 50 करोड़ किसानों को उनके द्वारा उत्पादित फसल को उचित मूल्य न देकर खेती घाटे का सौदा बनाये हुए है। इससे भी ज्यादा निर्दयता, किसानों द्वारा उत्पादित 40 प्रतिशत खाद्यान्न को जानबूझकर उचित भंडारण सुनिश्चित न कर, प्रत्येक वर्ष अन्न सड़ाकर, मुट्ठीभर पूंजीपतियों को शराब बनाने के लिये कूड़े के भाव दे दे रहा है और दूसरी तरफ अन्न के अभाव में इसी देश के तकरीबन 30 करोड़ लोगों को रात में भूखे पेट सोने को मजबूर कर रही है, दूसरी तरफ चन्द पूंजीपतियों की प्रतिदिन की आमदनी करोड़ों में है। एक पूँजीपति अडानी 2021 के बाद की आमदनी 50% से ज्यादा के रेशियो से लगातार ग्रोथ कर रही है। वंही अम्बानी एक घण्टे में 1.4 करोड़ रूपया कमाता है। देश की मेहनतकश जनता काम करते-करते एक दिन नहीं पूरी जिंदगी बीत जाती है तो भी 1.4 करोड़ रूपया नहीं कमा पाता।
गणतंत्र के 73 वर्षों के बाद जिस देश में मात्र 1 प्रतिशत लोगों के पास समाज की 73 प्रतिशत से भी अधिक सम्पदा पर कब्जा हो, जहाँ हाड़ कांपती ठंड में भी दिन-रात काम करने के बावजूद 22-25 करोड़ लोग भूखे पेट लेकर फुटपाथ पर सोने को मजबूर हों, जहाँ अपने अधिकार के लिए आवाज उठाने वालों को लाठी, डंडो और गोलियों से भी कुचल कर उनकी आवाज को दफन कर दिया जाता है। जहाँ सच बात लिख देने और कह देने से यू ए पी ए जैसा काला कानून थोपकर जेल के अन्दर ठूंस दिया जाता है और अभिव्यक्ति की आजादी को पैरों तले कुचल दिया जाता है। जहाँ गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के दिन देश के हर शहर में बच्चों द्वारा अपना पेट भरने के लिए देश का झंडा बेचना बहुत ही आम बात हो। जहाँ इस गणतंत्र की खुशी मना रहे कुछ लोगों द्वारा आपस में मिठाई बांटी जा रही हो और एक गरीब उस गणतंत्र की मिठाई को निहारता हुआ बेबस नजरों से अपनी इच्छा को मार देता है। यदि कोई गरीब इस गणतंत्र की मिठाई मांग ले तो उसकी हालत देखकर मना हो जाता हो और यदि कोई दे भी दे तो उसके पीछे और कोई आ जाय इस गणतंत्र के खुशियों की मिठाई मांगने तो उसको दुत्कार दिया जाता है। ये कैसा गणतंत्र है? और किसका गणतंत्र है? जहाँ खुशियां मानने के लिये मुँह भी मीठा नहीं हो पाता। जहाँ शासक वर्ग अपनी खुशियों को सड़क पर झांकी के जरिये प्रदर्शन करता है और उस प्रदर्शन में आम नागरिक शरीक होने के लिये भी यदि ठीक-ठाक कपड़े नहीं है तो घुसने भी नहीं दिया जाता है। तो फिर उन खुशियों में शरीक होने के लिये अच्छे कपड़े कैसे उपलब्ध होंगे? जब उसके पास उसकी योग्यता के अनुसार रोजगार उपलब्ध होगा और काम के अनुसार दाम भी होना चहिए। इस गणतंत्र में तो यह सम्भव नहीं है। क्योंकि इस गणतंत्र में सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं। सबको आत्मनिर्भरता पर छोड़ दिया जा रहा है। ज्यादा नहीं 3-4 वर्षों में ही माँ-बाप सरकार की तरह अपने बच्चे को सड़क पर छोड़ देंगे आत्मनिर्भर बनने के लिये। क्या यही गणतंत्र का स्वरूप होता है।
यह गणतंत्र मेहनतकश जनता का नहीं है। पर सभी मेहनतकश जनता के दिमाग में अपनी किताबों, टेलीविजन के पिक्चरों और धारावाहिकों, सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया और अपने प्रचार तंत्र के जरिये ढूंस दे रहा है। और हम मेहनतकश जनता इस गणतंत्र को अपना मान इस गणतंत्र की खुशियों में शामिल तो होना चाहते हैं पर गणतंत्र की खुशियाँ चन्द लोगों में सिमट के रह जाती है। निश्चित ही ये आजादी झूठी है, ये गणतंत्र झूठा है क्योंकि आज भी देश की जनता भूखी है, और उसकी आवश्कतायें अधूरी हैं। और जब तक हमारी आवश्यकताएं अधूरी रहेंगी तब तक इस गणतंत्र के कोई मायने नहीं।
देश की बहुसंख्यक जनता पहले भी भूखी नंगी थी और आज भी है। कोई विशेष अन्तर नहीं आया है जनता के जीवन में। जैसे जब पानी बरसता है तो अमीर और गरीब सब पर कुछ ना कुछ बारिश के बूंदें पड़ती हैं इसी प्रकार जब इन मुट्ठीभर लोगों के लिये विकास होता है तो कुछ बूंदें भारत के बहुसंख्यक जनता पर भी थोड़ा सा पड़ जाता है और इस पूंजीवादी लोकतंत्र के दलालों ने इसको बहुसंख्यक जनता का विकास बता भारत के पूंजीवादी लोकतंत्र का बखान करना शुरू कर दिया और हमने भी मान लिया कि ये उन मुट्ठीभर लोगों के विकास के छींटे नहीं हम बहुसंख्यक जनता पर विकास की बारिश हुई है। यदि वाकई देश की बहुसंख्यक जनता के लिये ही विकास हुआ है, तो गणतंत्र के 73 सालों में और देश के आजादी के 75 सालों बाद भी देश के 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन पर निर्भर क्यूँ हैं? यदि ये 5 किलो राशन ना मिले तो एक वक्त का भरपेट खाना भी नसीब क्यूँ नहीं? तकरीबन 25 करोड़ लोगों के ऊपर एक अदद छत तक नसीब क्यूँ नहीं? और हाँ ये आंकड़े मेरे नहीं सरकार के हैं। इन भूखी-नंगी जनता के लिये सन्तुलित भोजन के क्या मायने? पेट भर जाये यही बहुत है। मुझे तो लगता है कि देश की 90% जनता सन्तुलित भोजन नहीं ले पाती है? कईयों को तो मालूम ही नहीं कि सन्तुलित भोजन क्या होता है? सन्तुलित भोजन में क्या-क्या शामिल होता है? इन्हें तो सिर्फ पेट भरने से मतलब होता है? तो जिसकी आवश्यकता अधूरी हो तो वो आजाद तो नहीं है। तो आखिर ये गणतंत्र दिवस का जश्न किसके लिये है?
इस पूंजीवादी गणतंत्र में न्यायालय, सेना, पुलिस और अन्य सभी सरकारी मशीनरी का पूरा तंत्र धनी और ताकतवर लोगों के कुछ समूहों की सुरक्षा के लिए दिन-रात काम करती रहतीं हैं। सारा का सारा तंत्र मुट्ठीभर लोगों की सुरक्षा में नतमस्तक खड़ी रहती है। गणतंत्र के 73 वर्षों के बाद भी जो दोहरी व्यवस्था अंग्रेजों के समय कायम थी, वही व्यवस्था आज भी कायम है। न्यायालय में न्याय नहीं फैसला होता है। इस न्यायालय में दोहरी व्यवस्था है अमीरों के लिये अलग और गरीबों के लिये अलग। अंग्रेजों के जमाने की ही तरह अमीरों के पक्ष में फैसला। न्यायालय एक कमजोर, निर्बल और निर्धन व्यक्ति को फाँसी पर चढ़ा देता है और अमीर शान से छूट जाता है। क्या केवल गरीब और निर्धन व्यक्ति ही अपराधिक कृत्य करते हैं? एक धनी व्यक्ति गंभीर से गंभीरतम् अपराध करके अपने पैसे के बलपर मंहगे से मंहगे वकील करके अपने किए गंभीरतम् अपराध के कुकृत्य से भी साफ बच निकलता है। जबकि एक गरीब बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार… से त्रस्त व्यक्ति, जिसके सर पर एक अदद छत तो दूर की बात पेट भरने के लिये दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं है, वह मंहगा वकील कैसे कर सकता है? उसके लिए मंहगा वकील तो दूर की बात एक साधारण वकील भी करना संभव नहीं है। कहने को जनता के लिये निचली अदालत के बाद हाईकोर्ट फिर सुप्रीम कोर्ट है तो कितनी आम जनता सुप्रीम कोर्ट पहुँच पाती है? सुप्रीम कोर्ट तो दूर की बात हाई कोर्ट तक ही सब नहीं पहुँच पाते क्योंकि वकीलों की फीस हजारों/लाखों में। अब जिस देश की 80 करोड़ जनता 5 किलो अनाज पर निर्भर हो, ऐसा माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी बता चुके हैं, वह लाखों की फीस कैसे वहन कर सकती है तो यह हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट किसके लिये? इसी प्रकार पुलिस और सेना का भी दुरूपयोग हमेशा धनी व ताकतवर लोगों के पक्ष में और गरीबों की हमेशा मुखालफत और उनके क्रूर दमन के लिए ही उनका हमेशा से ही इस्तेमाल होता आया है।
बेरोजगारी से त्रस्त युवाओं के रोजगार माँगने पर सेना/पुलिस के जरिये उनको लाठियों से पीटा जा रहा है। इन बेरोजगार युवावों का क्या दोष? क्या ये कुछ मुफ्त की चीजों की डिमांड कर रहे हैं? ये सिर्फ अपने हक-हूकूक की ही तो बात कर रहें हैं। तो ये कैसा गणतंत्र है, जहां जनता अपने हक/अधिकार के लिए आवाज तक ना उठा सके?
देश 74वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। हजारों-लाखों कुर्बानियां देने के बाद ये तथाकथित आजादी मिली है। तथाकथित इसलिए क्योंकि वास्तविक रूप में हम आज भी गुलाम हैं। गुलामी का मतलब ये नहीं कि हमारे हाथ-पांव में जंजीरे बंधी हों तभी हम गुलाम हो सकते हैं। ये वो जमाना नहीं रहा, आज समय बदल गया है! इतिहास अपने को दोहराता जरूर है पर कभी भी पीछे की ओर लौट कर नहीं जाता। गुलामी से पहले हमें आजादी को समझना पड़ेगा। 'मानवीय के आवश्यकताओ की पूर्ति ही आजादी है।' यदि हमारी जरूरतें पूरी नहीं होती तो हम आजाद नहीं और इस आजादी के कोई मायने नहीं है। ये आजादी किसी काम की नहीं बस दिल बहलाने के लिए गालिब ये खयाल अच्छा है। इसका मतलब हम भूख से तब तक आजाद नहीं हो सकते जब तक कि हमें संतुलित भोजन न मिले। हम बीमारी से तब तक आजाद नहीं हो सकते जबतक कि हमें समुचित इलाज न मिले। हम नंगेपन से तब तक आजाद नहीं हो सकते जब तक कि हमें वस्त्र न मिले। हम मकान की समस्या से तब तक आजाद नहीं हो सकते जबतक कि हमें स्वास्थ्यकर मकान न मिले। हम अशिक्षा और अन्धविस्वास से तब तक आजाद नहीं हो सकते जब तक कि हमें आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा न मिले। हम तब तक आजाद नहीं हैं जब तक अपने और अपने परिवार के जीवकोपार्जन के लिये एक अदद योग्यता अनुसार रोजगार ना मिले। ये आजादी किसी काम की नहीं, बस दिल बहलाने के लिए गालिब ये खयाल अच्छा है।
ये आजादी यूं है कि आपके हाथ-पैर में बंधी गुलामी की बेड़िया खोल दी जाए और आपके चारों तरफ गहरी खाई खोद दी जाय यानी आपको चलने के लिए एक इंच जमीन ना दी जाए और आपसे कह दिया जाए कि जाओ अब आपको इन गुलामी के जंजीरों से मुक्ति दी जाती है, जाओ आप आजाद हो। चिड़िया के उसके पिंजरे से निकालकर उसके पंख कुतर दो और कहो जाओ उड़ने के लिए ये सारा आसमां तुम्हारा है जहां मर्जी हो उड़ो, तुम आजाद हो। तो इसी तरह की आजादी है।
कहते हैं हम आजाद हैं, हर चीज की आजादी है! जाओ हवाई जहाज खरीदो, महंगी से महंगी कार खरीदो, बड़ी से बड़ी फैक्ट्री खोलो, शापिंग माल खोलो… आप आजाद हैं, देश के संविधान ने यह आजादी दिया है! गजब की आजादी दिया है, क्या महंगी से महंगी गाड़ी, हवाईजहाज… गुलाम भारत में अंग्रेजों के समय में नहीं खरीद सकते थे? क्या तब भी कोई मनाही थी? इसी प्रकार बड़ी-बड़ी फैक्ट्री और शापिंग माल खोलने में भी कोई पाबन्दी नहीं थी, यदि नहीं तो फिर नया क्या दिया इस संविधान ने? क्या देश और राज्य की सरकारों ने हवाई जहाज, महंगी गाड़ी… खरीदने और फैक्ट्री, शापिंग माल… खोलने के लिए आवश्यक धन का इंतजाम किया? खैर ये सब बहुत दूर की बात है आपकी बेसिक (बुनियादी) जरूरतों को पूरा करने के लिए कोई इंतजाम किया? नहीं ना! तो फिर इस स्वंत्रता के क्या मायने? अब कुछ तथाकथित बुद्धिमान लोग कुतर्क करते हुए कहेंगे कि सरकार ने सभी के लिए ठेका थोड़े ही ले रखा है, सरकार क्यूँ करे? आप भी तो कुछ करो। या फिर बैठे-बैठे यूं ही सब मुफ्त में चाहते हो? तो महोदय मुफ्त में कोई कुछ भी नहीं चाहता पर सरकार हमसे बेशुमार टैक्स लेती है तो सरकार का दायित्व बनता है कि सबके रोजगार की व्यवस्था करे! जब जनता को ही आत्म निर्भर बन सब व्यवस्था खुद करना है तो फिर टैक्स किस लिये? चुनाव के वक्त मुफ्त वायदे क्यूँ किये जाते हैं? मुफ्त अनाज, मुफ्त सिलेण्डर, मुफ्त साइकल, मुफ्त भोजन, मुफ्त लैपटाप… की जगह रोजगार क्यूँ नहीं दिया जाता है?
क्या सिर्फ फावड़ा उठाकर गड्ढा खोद देने से काम चल जाएगा? नहीं ना! जबतक कोई गड्ढा खुदवाने को तैयार नहीं होगा तो हमारे गड्ढा खोद देने भर से पैसा नहीं मिलेगा! जनता अपनी श्रम शक्ति बेचने को तैयार है पर श्रम शक्ति खरीदने वाला भी तो चाहिए? अब जनता को टैक्स, मुनाफा, सूद, घूसखोरी, नशाखोरी, जमाखोरी, कालाबाजारी के जरिये निचोड़ लेना और जनता को जनता के भरोसे जनता के हाल पर छोड़ देना तो ये कौन सा गणतंत्र है? ये कौन सी आजादी है? ऐसे हालात तो गुलाम भारत में अंग्रेजों के समय में भी थे और यदि वही हालात आज भी हैं तो इस आजादी और इस संविधान और गणतंत्र के क्या मायने?
कुछ लोग नासमझी में कहते हो- 'कोई व्यक्ति 10-12 बच्चे पैदा कर रहा है इसमे सरकार क्या करे? निश्चित ही उस माँ-बाप का भी दायित्व बनता है कि उसे सन्तुलित आहार, अच्छी शिक्षा, तन ढकने के लिए अच्छे कपड़े, रहने के लिए उसके ऊपर एक छत दे, पैदा करके जानवरों की तरह उनके हाल पर आत्मनिर्भर होने के लिए छोड़ देना उचित नहीं।' मगर ये तो बताओ कि मां-बाप अपने बच्चों से टैक्स, मुनाफा, सूद… नहीं लेते, अपना पेट काट कर बच्चों को पालते हैं, फिर भी तुम उन पर जिम्मेदारी का तोहमत थोप रहे हो, हम शासक वर्ग और उनके दलालों से पूछते हैं कि तुम सैकड़ों तरीकों से जनता को निचोड़ रहे हो तो तुम्हारी सरकारों का दायित्व नहीं बनता? उन बच्चों के माँ-बाप के लिए एक अच्छी सी जिंदगी गुजारने और आने वाली पीढ़ी की जरुरतों को पूरा करने के लिए सबको रोजगार प्रदान करने की जिम्मेदारी तुम्हारे सरकार की नहीं हैं क्या?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 290 A कहता है कि केरल राज्य प्रत्येक वर्ष 46 लाख 50 हजार और तमिलनाडु राज्य प्रतिवर्ष 13 लाख 50 हजार हिंदु मन्दिरों के लिए देवस्थानम निधि को दान देने के लिए बाध्य है यानी गारंटी दी गयी है इतना पैसा देना ही देना है पर संविधान के नीति निर्देशक तत्व अनुच्छेद 36 से 51 तक मौलिक अधिकारों के मामले में कोई गारण्टी नहीं है। इसके लिये राज्य को बाध्य नहीं किया गया है, राज्य चाहे तो मौलिक अधिकार दे, चाहे तो ना दे और तो और भारतीय संविधान का अनुच्छेद 37 इसको इसको जस्टीफाई कर रहा है कि यदि राज्य सरकार ना करे तो आप सरकार के खिलाफ न्यायालय नहीं जा सकते हैं। यहां जनपक्षधर प्रावधानों को लागू कराने की गारण्टी क्यूँ नहीं दिया गया? न्यायालय जाने से क्यूँ रोका जा रहा है? मन्दिरों के लिए गारंटी दी गयी है तो भारत के नागरिकों के लिए कोई गारंटी क्यों नहीं? भारतीय संविधान में दिये गए मौलिक अधिकार पर अनुच्छेद 290 A की तरह गारण्टी क्यूँ नहीं? क्या देश/राज्य की प्राथमिकता में मंदिर पहले और देश के नागरिक बाद में आते हैं?
लोग लफ्फाजी करते हुए तर्क देते हैं 'आज जो ये पटर-पटर बोल रहे हो ये हक संविधान ने दिया है।' यानी अभिव्यक्त की आजादी! अनुच्छेद 19 A के तहत। तो क्या अंग्रेजों के समय में भारतीय गूंगे थे? लोग बोलते तो तब भी थे ना! हाँ तब अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ बोलने पर जनता को प्रताड़ित किया जाता और जेल में डाल दिया जाता। तो आज भी वही किया जा रहा है और आज तो यह संविधान के दायरे में रहकर किया जा रहा है बाकायदा कानून बनाकर क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 19 A बोलने की स्वतंत्रता तो देता है पर वहीं 19 B में कंडीशन लगाकर बोलने की आजादी छीन लेता है। और ये विश्व का एक मात्र संविधान है जहाँ बोलने पर पाबन्दी लगाता है। और ऐसे सैकड़ों नहीं हजारों उदाहरण मौजूद हैं कि सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलने पर जेल में डाल दिया गया है। चाहे वह भाजपा की सरकार हो, कांग्रेस की सरकार हो, सपा, बसपा, राजद, आप, शिवसेना… किसी भी पार्टी की सरकार हो कोई फर्क नहीं पड़ता सभी जनता का दमन करते हैं। ये कैसी अभिव्यक्ति की आजादी है? और वो भी दोहरी आजादी, किसी के लिए कुछ और किसी के लिए कुछ! दिल्ली में CAA-NRC के प्रोटेस्ट के दौरान हुए दंगों के दौरान कपिल मिश्रा खुलेआम बड़े पुलिस अधिकारियों के सामने दंगा भड़काने की धमकी देता है और बोलता है गोली मारो सालों को… तो यहां अभिव्यक्त की आजादी है और अगर कोई सच्चाई सामने रख दे तो जेल! तो ये कैसी अभिव्यक्ति की आजादी है? आज सबसे खतरनाक बात यह है की जो भी लोग सत्ता और कारपोरेट के अन्याय, शोषण के विरुद्ध लिख, बोल कर आवाज उठा रहे हैं उन्हें नक्सली, माओवादी, देशद्रोही, मुल्ले, पाकिस्तानी, चीन द्वारा फन्डेड… कह कर या तो हत्या की जा रही या फिर जेलों मे डाला जा रहा है।
इस देश को आजाद हुए 75 साल हो गए हैं और इस देश में संविधान लागू हुए 73 साल हो गए और वोट देते हुए 70 साल तो इस 73 साल के गणतंत्र में क्या बदला? इन 75 सालों में हर 5 सालों में सरकारें आती और जाती रहीं हैं और देश की मेहनतकश जनता सिर्फ वोट देकर मुट्ठीभर लोगों के जीवन में बदलाव लायी है और आजादी से पहले भी देश की बहुसंख्यक जनता भूखी और नंगी थी और आज भी है। बस इसी आस में वोट देती आयी है कि इस बार वह जिसे चुन कर भेजेंगे वो इन 5 सालों में हमारा उद्धार जरूर करेंगे और इसी उम्मीद में आजादी से लेकर अब तक आने वाला 5 साल इन्तजार करते हैं और करते रहेंगे क्योंकि ये नकली गणतंत्र है।
शिक्षा के नाम पर स्कूलों का निजीकरण, बाजरीकरण किया जा रहा, जिसके पास जितना पैसा होगा उतनी अच्छी उसे शिक्षा, भोजन, स्वास्थ्य… मिलेगा। यदि आपके पास पैसा नहीं तो आपके बच्चों को अच्छी शिक्षा, भोजन, स्वास्थ्य… नहीं मिलेगा। आज स्थिति ऐसी है की देश के अधिकतर नौजवान बेरोजगार घूम रहे है नौकरियां खत्म हो रही… यदि कहीं से मित्रों, नाते-रिश्तेदारों, महाजनों, सूदखोरों, बैंकों… से कर्जा लेकर अच्छी शिक्षा ली फिर भी गारंटी नहीं कि आपको आपकी योग्यता के अनुसार रोजगार मिल जाए तो ऐसी आजादी के क्या मायने? आपके पास पैसा है तो अच्छा इलाज और यदि नहीं तो मर जाओ, आपके पास पैसा है तो भोजन नहीं तो भूखे मर जाओ…
ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2021 के अनुसार 116 देशों भुखमरी देशों की सूची में भारत का 101 पायदान पर है, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश से भी पीछे। वर्ल्ड हैपीनेस इंडेक्स-2022 में 146 देशों की लिस्ट में 136 रैंक पर है। अंतरराष्ट्रीय एजेंसी OXFAM के अनुसार भारत में नीचे की 50% जनसंख्या के पास जितनी सम्पत्ति है उससे ज्यादा संपत्ति भारत के सिर्फ 9 अमीरों के पास इकट्ठा हो गई है। इन आंकड़ों को आप गौर से देखिये कि अरबपतियों की संख्या में जिस भारत का नम्बर तीसरे स्थान पर है, उसी भारत में दुनिया की सबसे गरीब आबादी निवास करती है, जिनके पास शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटी, रोजगार, आवास जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं है। तो इससे साफ नजर आ रहा है कि यह गणतंत्र किसके लिये है। मेहनतकश जनता के लिये या मुट्ठीभर लोगों के लिये? अरबपतियों की संख्या बढ़ाने वाली दुर्नीति और उस दुर्नीति पर स्वयं अपनी पीठ थपथपा लेने मात्र से देश के लोग खुशहाल कैसे हो जायेंगे?
देश में अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन कहते हैं कि एक करोड़पति बनने मे कई हजार लोगों को गरीब होना पड़ता है… अब किसी के दरवाजे पर गड्ढा खुदेगा तभी तो कहीं मिट्टी का टीला बन पाएगा। निश्चित ही इस व्यवस्था में गरीब, गरीब होता जायगा तथा अमीर और अधिक अमीर। पूरे देश की जनता एक तरफ भूख, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, कुपोषण आदि गंभीरतम् और मूलभूत समस्याओं से त्रस्त है और दूसरी तरफ दिल्ली के बोट क्लब पर कुछ रईसों के समूह और उनके दलाल सत्ता के कर्णधारों के रंगारंग गणतंत्र दिवस मना लेने मात्र से यह देश कैसे गणतांत्रिक और खुशहाल देश बन पाएगा?
आज यह बुनियादी सवाल उठाये जाने की जरूरत है कि हम जिस सम्प्रभु, समाजवादी लोकतान्त्रिक गणराज्य में जी रहे हैं, वह वास्तव में कितना सम्प्रभु है, कितना समाजवादी है और कितना लोकतांत्रिक है? पिछले पचहत्तर सालों में आम भारतीय नागरिक को कितने और कौन से लोकतांत्रिक हक हासिल हुए हैं? और यहाँ देखते हुए इस बात का ध्यान रखना होगा कि दिखने वाला नहीं मिलने वाले अधिकार क्या हैं? क्योंकि हाथी के दांत खाने के और होते हैं दिखाने के और। हमारा गणतंत्र आम जनता को किस हद तक नागरिक और लोकतांत्रिक अधिकार देता है और किस हद तक, किन रूपों में उनकी हिफाजत की गारण्टी देता है? संविधान में उल्लिखित मूलभूत अधिकार अमल में किस हद तक प्रभावी हैं? संविधान में उल्लिखित नीति-निर्देशक सिध्दान्तों से राज्य क्या वास्तव में निर्देशित होता है?
गणतंत्र दिवस होता है यह दिखाने के लिए कि राजसत्ता के पास जनता की आवाज कुचलने के लिए कितनी दमनकारी सैन्य ताकत है। जनता का काम बस इतना ही है कि उस ताकत को देखे और 'गणतंत्र' के डर से अपना मुँह बंद रखे। शासक वर्ग द्वारा प्रायोजित सैन्य ताक़त के अश्लील प्रदर्शन में शामिल होने बजाय बेहतर यह होगा कि हम इस तथाकथित गणतंत्र और उसकी पवित्र पुस्तक संविधान के निर्माण की प्रक्रिया को समझें और इन विषयों पर चर्चा आयोजित करनी चहिए और इन चर्चों में शामिल होना चहिए और आज वह समय आ गया है कि इस गणतंत्र पर पुनर्विचार करें।
इस गणतंत्र दिवस के इस मौके पर अवतार सिंह पाश की चन्द पंक्तियाँ प्रासंगिक हैं -
"संविधान
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे मत पढ़ो
इसके लफ़्ज़ों में मौत की ठण्डक है
और एक-एक पन्ना
ज़िन्दगी के अन्तिम पल जैसा भयानक
यह पुस्तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु
और जब मैं जागा
तो मेरे इन्सान बनने तक
ये पुस्तक मर चुकी थी
अब अगर इस पुस्तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोए हुए पशु"
*अजय असुर*
*यह लेख नया अभियान मासिक पत्रिका के जनवरी 2023 अंक से लिया गया है*
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4. विद्वान अधिवक्ताओं एवं समस्त नागरिकों से अपील-
भारत 23 जून 1757 को सामन्ती शासक वर्गों की फूट गद्दारी, और 20 लाख रूपये की रिश्वत खोरी के कारण लार्डक्लाइव की 500 बन्दूक धारी सेना से प्लासी के मैदान में बिना युद्ध किये आधे घंटे में हार गयी और भारत की 18 हजार सेना खड़ी की खड़ी रह गयी। क्योंकि सेनापति मीरजाफर, जगतसेठ, अमीरचन्द्र और नन्दगोपाल जैसे गद्दार अंग्रेजों से मिल गये थे इस कारण भारत 190 वर्षों तक अंग्रेजों का गुलाम बना रहा।
हम भारत वासियों के दो प्रमुख राष्ट्रीय पर्व है। एक 15 अगस्त 1947 जिसे स्वतन्त्रता दिवस कहा जाता है, यह असल में सत्ता हस्तान्तरण दिवस है के साथ-साथ भारत का विभाजन दिवस भी है। दूसरा 26 जनवरी 1950 जिसे गणतंत्र दिवस कहा जाता है। यह वास्तव में संविधान दिवस है।
1857 भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 15 अगस्त 1947 तक भारत की जनता के अभूतपूर्वशहादत के साथ संघर्ष किया था। क्रान्तिकारियों ने बलिदान और कुर्बानी की परम्परा कायम किया था। हजारो लोग फांसी के फन्दे पर पर चढ़ गये थे। लाखों गोलियों से भून दिये गये थे। करोड़ो लोग बार-बार जन आन्दोलनों के दौरान जेल गये यातनायें सहे तब जाकर 15 अगस्त 1947 के दिन ब्रिटिश साम्राज्यवाद हारकर भारत छोड़ने के लिए बाध्य हुआ था।
भारत के विभाजन का प्रस्ताव-10 जुलाई 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने पारित किया था। पंडित नेहरू द्वारा लिखित, सरदार पटेल द्वारा समर्थित और गान्धी जी द्वारा अनुमोदित था।
क्या कहीं कोई देशभक्त अपने देश के विभाजन के लिए प्रस्ताव पारित करता है? ऐसी तथाकथित आजादी का मिशाल विश्व इतिहास में नहीं मिलता है। यह बेमिशाल है। जहाँ गुलाम बनाने वाली ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति का प्रतिनिधि वायसराय महारानी विक्टोरिया का पोता लार्ड माउन्टबेटन ही सत्ता हस्तान्तरण के लगभग 10 महीने बाद तक भारत का वायसराय बना रहा।
यह सत्ता हस्तान्तरण पूरी तरह से भारत की जनता के खून से डूबी हुयी थी। जहाँ 14 अगस्त 1947 तक भारत का जो हिन्दू और मुसलमान आपस में मिलकर अंग्रेजो से लड़ते थे वहीं अब तथा कथित आजादी के कारण पूरे देश व्यापी पैमाने पर आपस में एक दूसरे का खून बहाने लगे।
इधर 15 अगस्त 1947 से 17 अगस्त 1947 तक यानी 3 दिन तक भारत के लोगों को पता नहीं था कि वे हिन्दुस्तान में हैं या पाकिस्तान में हैं। उधर सत्ताधारी अंग्रेजों ने जान बूझकर साम्प्रदायिक दंगा करवाया था। परिणामस्वरूप 3 दिनों में 10 लाख से अधिक लोग साम्प्रदायिकवादी दंगों में मारे गये। एक करोड़ लोग अपने देश में ही शरणार्थी बनकर रह गये। एक करोड लोग अपने देश में शरणार्थी बनकर एक कोने से दूसरे कोने तक अपना जान बचाने के लिए दौड़-भाग करते रहे। अरबों-खरबों की पूँजी सम्पत्ति और धन देश की जनता का बरबाद हुआ। इसके लिए जिम्मेदार गद्दार पूँजीवादी नेताओं को सजा मिलनी चाहिए थी किन्तु 14 अगस्त की रात्रि में उन्हें गद्दारी का इनाम मिला और सत्तारूढ हो गये। नेहरू पटेल भारत के प्रधानमंत्री और उपप्रधान मंत्री बनकर सरकार चलाने लगे, उधर जिन्ना साहब पाकिस्तान का गवर्नर जनरल बन गये, यद्यपि देश के मालिक भारत की जनता ने इन दोनों को सत्ता नहीं सौंपी।
भारत जो पूर्णसामंती और पूर्ण औपनिवेशिक देश था वह अर्द्धसामंती, अर्द्धऔपनिवेशिक में बदल गया। सत्ता हस्तान्तरण के बाद ब्रिटिश राजसत्ता और व्यवस्था सेना, पुलिस, नौकरशाही, ब्रिटिश का ही कानून कायदे सत्ता और व्यवस्था का पुराना ढाँचा ब्रिटिश साम्राज्य समेत कई साम्राज्यवादी देशों पूँजी की सत्ता अमेरिकी नेतृत्व में आज भी कायम है।
15 अगस्त 1947 को भी ऐसा ही हुआ आज के युग में दलाल पूँजीपतियों के नेतृत्व में कोई भी देश पूरी तरीके से आजाद या स्वतन्त्र नहीं हो सकता है हमारे सत्ताधारी लोगों का सम्बन्ध भारत के बड़े-बडे़ पूँजीपतियों और बडे जमीन्दारों एवं राजाओं-महाराजाओं के साथ हैं जो साम्राज्यवादियों के साथ पुराने औपनिवेशिक सम्बन्धों को कायम रखे हुए हैं।
जहाँ देश का सर्वोच्च न्यायालय कहता है कि इस देश को कोई सरकार नहीं भगवान चला रहे हैं। वहीं निवार्चन आयोग का अध्यक्ष कहता है कि लोग पैसा कमाने के लिए रोज-रोज नई पार्टियाँ बना रहे हैं।
राजनीति अर्थनीति की धुरी है अर्थनीति का चक्कर राजनीति लगाती है। किन्तु वतर्मान समय में समाज में राजनैतिक दरिद्रता छा गयी है। विचारधारा और सिद्धान्तविहीन राजनीति हो गयी है, इसीलिए निजी स्वार्थ के लिए एक पार्टी से दूसरे पार्टी में जाने के लिए भागदौड़ मची हुयी है। शोषणतंत्र को छिपाने के लिये संसदीय लोकतंत्र का ब्रिटिश प्रणाली को 15 अगस्त 1947 के पहले से ही गवर्मेन्ट आफ इण्डिया एक्ट 1935 के जरिये ऊपर से लाद दिया गया था ताकि पूरी स्थिति की जानकारी भारत की जनता को होने ही न पावे।
भारत में झूठ बोलने की आजादी को ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कहा जाता है, भारत का संसदीय लोकतंत्र इसी झूठ का नमूना है, जैसा कि सभी पूंजीवादी पार्टियों के चुनावी वादों और नारों को केन्द्र या राज्यों के सरकारों के रवैये से पता चलता है-
सम्पूणर्क्रान्ति का नारा, शोषणमुक्त समाज बनायेंगे, भ्रष्टाचार मिटाएंगे, बेरोजगारी, बेकारी, मंहगाई, कुशिक्षा समाप्त हागी। 2. हर- हाथ को काम, हर- खेत को पानी, 3. जय-जवान, जय-किसान। 4. गरीबी मिटाओ, 5. बैंको का राष्ट्रीयकरण, 6. भूख,भय और भ्रष्टाचार मिटाऐंगे। 7. शाईनिंग इण्डिया, 8.अच्छे दिन आयेंगे, 9. विदेशों में जमा धन 90 दिन में आयेगा, 15-15 लाख रूपया प्रत्येक परिवार के खाते में जायेगा। 10. न्यू इण्डिया, 11. महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी, बेटी-पढ़ाओ और बेटी बचाओ। 12. किसानों की आय 2022 तक दुगनी हो जायेगी।
ऐसे तमाम नारे और वादे जनता के बीच सभी पूंजीवादी पाटिर्यां चुनाव के अवसर पर करती हैं। जनता उनके लुभावने नारे को सुनकर उन्हें चुनती है परिणामस्वरूप जनता को धोखा के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता जैसा कि उपरोक्त नारों से परिणाम सामने हैं। किन्तु चुनाव से देश में कुछ लोगों की किस्मत बदलती है, मंत्री, सांसद, विधायक, जिला पंचायत अध्यक्ष, ब्लाक प्रमुख, ग्राम प्रधान विकास के नाम पर मिले धन को लूट पाट कर बराबर कर देते हैं, जनता उनसे हिसाब भी नहीं मांग सकती।
कहा जाता है कि भारत में जनतंत्र है, लोकतंत्र है। क्योंकि माननीय मोदी जी जनतंत्र द्वारा चुने गये हैं, लेकिन जनता द्वारा चुने जाने पर जनतंत्र का मखौल उड़ा रहे हैं अपने मन की बात कह कर तथा 135 करोड देश वासियों से टी0वी चैनल पर झूठ बोलते हैं। जो पूरा देश देखता व सुनता है, यह कैसा जनतंत्र है या राजतन्त्र है इटली के मुसोलिनी और जमर्नी के हिटलर से भी आगे है।
अपना भारत वर्ष को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, 70 प्रतिशत लोग गांवों में निवास करते हैं और खेती करते हैं। उनकी जीविका कृषि से ही चलती है, उन्ही को अन्नदाता भी कहते है, भारत में 40 प्रतिशत लोग भूमिहीन हैं।
आजादी की लड़ाई चल रही थी तो उस समय 1946 से 1951 तक तेलंगाना में हथियार बन्द किसान जमीन के लिये संघर्ष कर रहे थे। तेलंगाना किसान संघर्ष के ताप से डरके 1952 में तथाकथित जमीन्दारी उन्मूलन हुआ कुछ किसानों को जमीन मिली। जो खुद काश्त थे सरकार को दस गुना लगान देकर भूमिधर हो गये और जमीन के मालिक हो गये जो दसगुना लगान नहीं दे पाए वे खुद काश्त करने के बावजूद भी भूमिहीन हो गए। जिनके नाम से खुदकाश्त नहीं रहा मगर खेती करते थे वे भूमिहीन हो गए। इस प्रकार जोतने वाले को जमीन नहीं मिल पायी।
1952 के पहले जमीन के मालिक राजा-रजवाडे, व जमीन्दार ही होते थे आम जनता का जमीन पर कोई अधिकार नहीं था। गांव में भी लोग जमीन्दारों या राजाओं के आदेश पर बसते थे और मकान बनाते थे, 1952 के बाद भी उन्होंने हजारों-हजारों एकड़ जमीन देवी-देवताओं, तथ मन्दिर के नाम दर्ज करा लिया है। क्योंकि जमीन्दारों, राजाओं-महराजाओं के नाम आज भी जमीन्दारी कायम है, भोजन, वस्त्र और मकान का निदान जमीन से जुड़ा हुआ है। जब जमीन से खेती होगी भोजन की समस्या हल होगी। जमीन से मकान की समस्या और जमीन से ही वस्त्र की समस्या हल होगी, किन्तु खेद की बात है किसी भी सरकार ने ऐसा नहीं किया कि जमीन जोतने वाले को जमीन मिले या यह सरकार किसान विरोधी, जन विरोधी है, क्योंकि किसान विरोधी जमीन अधिग्रहण अध्यादेश 2015 में ही पास कर दिया है।
2020 में किसान विरोधी तीन काले कानून बने जो जमीन छीनकर पूंजीपतियों के हक में अदानी, अम्बानी के हाथ गिरवी करने की साजिश थी। जिसके लिये गत वर्ष तीन काले कानून बनाये गये थे जिसे किसानों के अथक संघर्ष के बाद सरकार को वापस लेने पड़ा। 1967 में नक्सलवाड़ी किसान आन्दोलन जो पूरे देश में कई वर्षों तक चला जिससे सरकार की नींव हिला दिया और जिसकी चिंगारी पूरे देश में आग तरह फैल गया। देश के कोने-कोने में जमीन का सवाल उठने लगा। तिभागा, छबहर, कुड़वा मानिकपुर, तमाम जगहों पर जमीन के लिये आन्दोलन हुआ परिणामस्वरूप सरकार को बाध्य होकर कृषि एवं मकान आदि के लिये पट्टा देना शुरू किया।
क्योंकि पूरी दुनिया में दो व्यवस्थाऐं हैं-
1. पूँजीवाद,
2. समाजवाद,
पूंजीवाद का चरित्र उजागर हो गया जो आपके सामने है। समाजवाद दुनिया के कई देशों में चीन, क्यूबा, उत्तरी कोरिया, वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया, जिम्बाम्बे, वल्गारिया जहाँ मजदूर वर्ग की पार्टी है। मजदूरों का राज हैं वहां कोई बेकार व बेरोजगार नहीं है न कोई भूखा है न नंगा है, समाजवादी चीन के पास अपार सम्पत्ति और पूँजी है। विश्व का सबसे शक्तिशाली और धनी देश बन गया। जो 1949 में क्रान्ति के पहले 40 देशों से पीछे था और वह आज नम्बर 1 हो गया है। उसी चीन में लगभग सभी रोजगारशुदा है। यहां की तुलना में वहां की प्रति व्यक्ति आय 6 गुनी है।
किसी देश की स्वतन्त्रता का तात्पर्य है उस देश की जनता के आत्म निर्णय के अधिकार से होता है। दूसरे शब्दों में किसी देश के आर्थिक राजनैतिक मामले को खुद उस देश की जनता द्वारा समाधान करने का अधिकार होता है। वास्तव में यही स्वतन्त्रता कहा जाता है, जो अपने देश में नहीं हुआ। आज देश की जनता की मांग है- दूसरी आजादी मतलब व्यवस्था परिवर्तन, यानी भारत में नवजनवादी क्रान्ति अर्थात् साम्राज्य वाद विरोधी सामान्त वाद विरोधी क्रान्ति। तब हमारे महान क्रान्तकारियों सरदार भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद, असफाक उल्ला खाॅ, सुखदेव, राजगुरू, बटुकेश्वर दत्त, के सपने साकार होंगे।
जब तक भूखा इन्सान रहेगा धरती पर तुफान रहेगा।
*सूर्यदेव सिंह ‘‘एडवोकेट’’*
*आल इण्डिया जनरल सेक्रेट्री*
*भारत चीन मैत्री संघ,बस्ती*
*मो0नं0-9532507014*
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5 *इसे व्यवस्था परिवर्तन की लडाई में बदलना होगा*
अंग्रेज सरकार ने
भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को
नियमों के खिलाफ जाकर
सायं को फांसी देकर
और
रात को ही पारिवारिक सदस्यों से छुपकर
चिता में अग्नि देकर
सुलगती विद्रोह की आग को दबाने की कोशिश की।
89 साल बाद
मनीषा की लाश
रात के अंधेरे में जला दी गई
सरकारी आदेश के बाद।
लेकिन, लोग उठ खड़े हो रहे हैं
चिता की जलती आग
बेचैन कर रही है
शांत हो चुके ह्रदयों को
अब यह चिंगारी उठी ही है तो
इसे दावानल में बदलना ही होगा
बिना किसी अगली घटना का इंतजार किये।
आरोपियों को सख्त सजा दिलानी ही होगी
मगर ये भी याद रखना होगा
बलात्कारी कोई यूं ही नहीं बन जाता
ये सड़ी गली इस व्यवस्था की देन है
इसलिए लड़ाई
बलात्कारियों की सजा तक ही नहीं रूकनी चाहिए
इसे व्यवस्था परिवर्तन की लडाई में बदलना होगा।
*संदीप कुमार*
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6. *आर्थिक जनतंत्र की स्थापना ही*
*सामाजिक समानता की कुंजी है*
आर्थिक समानता के बिना राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समानता का नारा संविधान निर्माताओं द्वारा दलित-शोषित मेहनतकशवर्ग को दिया गया एक धोखा है. इससे किसी भी तरह की न तो कोई समानता आई है, न आ सकती है, जबकि वास्तविक गणतंत्र के लिए आर्थिक समानता एक मूलभूत बात है, लेकिन वर्तमान सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था में जो तंत्र है, उसमें आम गण यानी "दलित-शोषित श्रमिकवर्ग" के लिए न कोई स्थान रहा है, न हो सकता है. इसीलिए इसे गणतंत्र न कहकर पूंजीतंत्र कहना ज़्यादा उपयुक्त मालूम पड़ता है.
इसीलिए मौजूदा संविधान की प्रस्तावना में लिखे गए "समानता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुता समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता" जैसे शब्द झूठे हैं, उनका कोई मूल्य नहीं.
मात्र 'एक व्यक्ति एक मूल्य' के सिद्धांत से कोई सामाजिक समानता न पैदा हुई है, न हो सकती है.
वास्तविक गणतंत्र के लिए आर्थिक जनतंत्र की स्थापना एक मूलभूत बात है जिसे शासकवर्ग द्वारा बड़ी चतुराई के साथ संविधान की प्रस्तावना में शामिल नहीं किया गया है.
इसीलिए आज मनाया जा रहा गणतंत्र दिवस कोई वास्तविक गणतंत्र दिवस नहीं है.
आर्थिक जनतंत्र की स्थापना के बग़ैर यह गणतंत्र, पूंजीतंत्र और भीड़तंत्र बनकर रह गया है.
भारत में मौजूद वर्णव्यवस्था, जातिवाद और धार्मिक उत्पीड़न का मूल आधार, श्रम का शोषण और निजी संपत्ति का अधिकार रहा है, लेकिन यह संविधान श्रम के शोषण और निजी संपत्ति के अधिकार को संवैधानिक और क़ानूनी तौर पर मान्यता प्रदान करता है.
भारत में मौजूद वर्तमान सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था का मूल आधार भी श्रम के शोषण और निजी संपत्ति के स्वामित्व पर ही आधारित है.
यह संविधान शासकवर्ग द्वारा इसी सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था को संचालित और नियंत्रित करने वाला दस्तावेज़ है और कुछ नहीं.
इसीलिए इस सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था के चलते चाहे कितने भी संवैधानिक, क़ानूनी, धार्मिक और सामाजिक सुधार कर लिए जाएं या शासकवर्ग द्वारा आरक्षण जैसी कुछ छोटी-मोटी आर्थिक राहतें दे दी जाएं, इससे दलित-शोषितवर्ग की सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षणिक स्थिति पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला. कथित आज़ादी के बाद के 75 वर्षों का अनुभव इसी तथ्य को उज़ागर करता है.
सच यही है कि आर्थिक जनतंत्र की स्थापना किए बग़ैर "दलित-शोषित मेहनतकश वर्ग वर्णव्यवस्था, जातिवाद, धार्मिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण और दमन" से किसी भी सूरत में मुक्ति नहीं पा सकता. यह असंभव है.
इसीलिए राजनैतिक, सामाजिक सांस्कृतिक व अन्य सभी तरह की समानताओं की एकमात्र कुंजी- आर्थिक जनतंत्र-की स्थापना में निहित है.
?इसीलिए यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी ज़रुरी है कि आर्थिक जनतंत्र की स्थापना के बग़ैर संविधान में लिखे स्वतंत्रता, न्याय, बंधुता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता जैसे अच्छे-अच्छे और मनमोहक शब्द, बिल्कुल आभासी व झूठे हैं, उनका कोई बहुत ज़्यादा मूल्य नहीं है!
इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए पूंजीवाद के प्रवक्ता स्वयं नेहरूजी ने कहा था:
समाजवाद जनतंत्र का अपरिहार्य परिणाम है. राजनीतिक जनतंत्र में यदि आर्थिक जनतंत्र शामिल नहीं है, तो वह निरर्थक है. आर्थिक जनतंत्र और कुछ नहीं, समाजवाद है.
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एक ऐतिहासिक और अतिमहत्वपूर्ण तथ्य है कि आर्थिक जनतंत्र की स्थापना की शुरुआत दलित-शोषित मेहनतकश वर्ग द्वारा उत्पादन के समस्त साधनों पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने के बाद ही संभव हो सकती है.
वोट के माध्यम से सत्ता परिवर्तन तो संभव है, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन कतई संभव नहीं.* *इसीलिए 'एक व्यक्ति एक मूल्य' जैसे पूंजीवादी फ़िकरे से समानता का आभास तो होता है, लेकिन इससे वास्तविक समानता प्रकट नहीं होती.
इसीलिए व्यवस्था परिवर्तन और उसके बाद आर्थिक जनतंत्र की स्थापना के इलावा, "दमित-पीड़ित/शोषितवर्ग" के पास अपनी मुक्ति का फ़िलहाल और कोई रास्ता नहीं है.
*व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से प्राप्त ज्ञान*
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7. भात-भात करते भूख से मरते बच्चों के देश में गणतंत्र दिवस मनाने की व्यर्थता !
निर्मल कुमार शर्मा
*(भारत के 74 वें गणतंत्र दिवस के मौके पर )*
*गणतांत्रिक देश उस देश को कहते हैं, 'जिसकी सत्ता जनसाधारण में समाहित हो ! गण मतलब जन समूह और तंत्र मतलब शासन व्यवस्था यानी जो शासन जनता द्वारा जनता के लिए हो,सभी नागरिकों को बराबरी और सभी को न्याय पाने, रोटी और शिक्षा पाने का समान अधिकार प्रदान करता हो,वही शासन प्रणाली गणतांत्रिक प्रणाली कहलाने का सच्चा अधिकारी है ! '*
*इस देश को गणतंत्र बनने के 73 वर्षों बाद भी क्या उक्तवर्णित परिभाषा पर भारत की गणतांत्रिक प्रणाली अभी तक खरी उतर पाई है ? इसका जबाब है बिल्कुल नहीं ! ब्रिटिशसाम्राज्यवादियों की गुलामी से मुक्ति के बाद इस देश की सत्ता फिसलकर देशी साम्राज्यवादियों और चंद पूँजीपतियों की गोद में जा गिरी है ! इस देश में अभी भी इतनी विकराल आर्थिक असमानता और बेइमानी तथा नाइंसाफी है कि एक तरफ भूख से बिलबिलाते हुए नन्हें बच्चे 'भात-भात की रट लगाए हुए' भूख से दम तोड़ देते हैं ! किसान अपनी फसलों की जायज कीमत की रट लगाए हुए वर्षों इस देश की राष्ट्रीय राजधानी के चारों तरफ बैठने को बाध्य किए जाते हुए 750 किसानों की मौत हो जाती है ! दूसरी तरफ एक-दो पूँजीपतियों की प्रतिदिन की आमदनी 36.71 करोड़ की है ! ऐसा नहीं है कि ये प्रतिदिन करोड़ों की कमाई करनेवाले पूँजीपति बहुत ही काबिल और कर्मठ हों, ऐसा बिल्कुल नहीं है, अपितु उनके उस बड़े आर्थिक साम्राज्य बनाने में देश के कर्णधारों की उनको देश के संसाधनों को लगभग लुटा देने की,की गई उदारता से ही उनका आर्थिक साम्राज्य का इतना विस्तार हुआ है ! यहाँ की व्यवस्था में न्यायालय, सेना, पुलिस और अन्य सभी सरकारी मशीनरी का पूरा ताम-झाम केवल कुछ धनी और ताकतवर लोगों के कुछ समूहों की सुरक्षा के लिए दिन-रात काम करती रहतीं हैं ! यहाँ का न्याय व्यवस्था कुछ धनी और ताकतवर लोगों की सुरक्षा में हाथ बाँधे खड़ी रहती है ! स्वतंत्रता के बाद आपने इन बीते 75 सालों में किसी अमीर और धनी व्यक्ति को उसके किए जघन्यतम् अपराध के लिए भी मौत की सजा पाते हुए कभी देखा है ? फाँसी के तख्ते पर लटकते हुए कभी देखा है ? कभी भी नहीं ! क्योंकि हमेशा यहाँ के न्यायालय एक कमजोर,निर्बल और निर्धन व्यक्ति को फाँसी पर चढ़ा देते हैं ! प्रश्न है कि क्या केवल गरीब और निर्धन व्यक्ति ही अपराधिक कृत्य करते हैं ? ऐसा बिल्कुल नहीं है, होता यह है कि एक धनी व्यक्ति गंभीर से गंभीरतम् अपराध करके अपने पैसे के बलपर मंहगे से मंहगे वकील करके अपने किए गंभीरतम् अपराध के कुकृत्य से भी साफ बच निकलते हैं, जबकि एक गरीब बेरोजगारी से त्रस्त व्यक्ति, जिसे दो जून का खाना भी मयस्सर नहीं है, वह मंहगा वकील कैसे कर सकता है ? उसके लिए मंहगा वकील करना संभव ही नहीं है ! इस विद्रूपताओं वाली व्यवस्था के अंधे, जाहिल और सत्ता के दुमछल्ले जज उस गरीब को आसानी से सूली पर चढ़ा देते हैं ! उस स्थिति में इस व्यवस्था की कथित न्याय व्यवस्था कतई न्यायपरक व्यवस्था ही नहीं है ! अपितु न्याय के नाम पर एक ढोंगमात्र है ! उसी प्रकार पुलिस और सेना का भी दुरूपयोग हमेशा धनी व ताकतवर लोगों के पक्ष में और गरीबों की हमेशा मुखालफत और उनके क्रूर दमन के लिए ही उनका हमेशा से दुरूपयोग ही होता आया है !_*
*दुनिया में आज हमारी स्थिति बहुत ही हास्यास्पद और दयनीय हो गई है । हम और हमारे नेता वास्तविकता के धरातल पर अपनी हालात का आकलन न करके, केवल उसे छिपाने और झूठ बोलकर अपने को कथित विश्वगुरू और आध्यात्मिक गुरू आदि भ्रामक और काल्पनिक बातें करके स्वयं को श्रेष्ठ मान लेने का भ्रम पालकर शुतुरमुर्ग जैसे खतरे का आभास होने पर रेत में अपना मुँह छिपा लेने मात्र से खतरा टल जाता है ! जैसी ग्रंथि पाल लिए हैं ! हम अपनी वर्तमान स्थिति का ईमानदारी से आकलन करके उसका निराकरण न करके उसे कुशलता से झूठ बोलकर, ढकने और छिपाने के कार्य में बहुत कुशल और पारंगत हैं !*
*संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी विश्व खुशहाली सूची के 156 देशों में अपने भारत महान की दयनीय हालत देख-सुनकर रोना आ जाता है ! देश के कर्णधारों के कथित सबका सबका साथ सबका विकास को मुँह चिढ़ाता और आइना दिखाता ये रिपोर्ट भारतीय समाज में व्याप्त सुशासन,प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य, जीवित रहने की उम्र, भरोसा, सामाजिक सहयोग, स्वतंत्रता और उदारता की दयनीय स्थिति की पोल खोल के रख देता है ! इस देश में सबसे दुःखद यह बात है कि वर्तमान सत्ता के कर्णधारों द्वारा अपने पालतू और चमची मिडिया द्वारा विकास का लाख ढिंढोरा पीटने के बावजूद भी भारत की स्थिति पिछले सालों में लगातार बद से बदतर होती गई है,मसलन भारत इस खुशहाली सूची में 2016 में 118 वें,2017 में 122 वें, 2018 में 133 वें और इस साल और लुढ़क कर 140 वें स्थान के दयनीय पायदान पर जा पहुंचा है !*
*वास्तव में इस देश के राजनैतिक कर्णधारों के स्वतंत्रता के प्रारम्भिक दो-ढाई दशकों के बाद से ही राजनीति का मतलब आम आदमी के सुखदुख, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि से ध्यान पूर्णतः हटकर खुद के विलासितापूर्ण जीवन जीने,खरबों के हवाई जहाजों में बैठकर दुनियाभर की सैर करने और अरबों-खरबों रूपये विदेशों में जमाकर,राजनीति को पूर्णतः एक कमाई का पेशा बना लेना हो गया है ! देश की खुशहाली का मतलब देश के हर गरीब से गरीब नागरिक को कम से कम भोजन,वस्त्र और सिर ढकने का एक अदद घर मिल जाने की सुनिश्चिंतता तो रहनी ही चाहिए ! केवल अरबपतियों की संख्या बढ़ाने वाली दुर्नीति और उस दुर्नीति पर स्वयं अपनी पीठ थपथपा लेने मात्र से देश के लोग खुशहाल कैसे हो जायेंगे ? इसके विपरीत इन संवेदनहीन राजनीति करने वाले भारतीय नेताओं को सह अस्तित्व, भाई-चारे, अमन-चैन, मिल-जुलकर कर शांतिपूर्वक रहने वाले भारतीय समाज में धार्मिक और जातिगत् वैमनस्यता और विग्रह पैदाकर दुःखदरूप से दंगे-फसाद फैलाकर अपने वोट की फसल काटने का दुष्कृत्य करने में जरा भी संकोच नहीं है ! इसी प्रकार इस देश की लगभग आधी आबादी मतलब लगभग 60 करोड़ किसानों को उनके द्वारा पैदा फसल को उचित मूल्य न देकर आत्महत्या करने को बाध्य करना ! उससे भी गंभीर अपराध, किसानों द्वारा उत्पन्न 40 प्रतिशत खाद्यान्न को जानबूझकर उचित भंडारण सुनिश्चित न कर, हर साल सड़ाकर, इसी देश के लगभग 20 करोड़ लोगों को रात में भूखे पेट सोने को बाध्य करने, बेरोजगारी से त्रस्त युवाओं के रोजगार माँगने पर उनको लाठियों से पीटकर उन्हें लहूलूहान करने जैसे कुकृत्यों को करने ने भारत को इस दयनीय स्थिति में ला खड़ा कर दिया है !*
*आखिर 60 करोड़ दुःखी किसानों और 12 करोड़ बेरोजगारी से त्रस्त युवाओं और प्रतिदिन 20 करोड़ भूखे सो जाने वाले लोगों मतलब कुल मिलाकर 92 करोड़ लोगों से हम खुश रहने की आशा कैसे कर सकते हैं ?इस देश में गलत नीतियों की वजह से कितना विरोधाभास है कि एक तरफ कुल 140 करोड़ लोगों में 92 करोड़ लोग मतलब लगभग 65 प्रतिशत से भी अधिक लोग भूख से बिलबिला रहे हैं और आत्महत्या कर रहे हैं,वहीं कथित आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहे इसी देश में दूसरी तरफ मुकेश अंबानी प्रतिदिन 36.71 करोड़ की सरकारी मदद से कमाई कर रहा है ! ऐसी विद्रूपतापूर्ण स्थिति में ये देश खुशहाल देश कैसे हो सकता है !*
*सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हमारे देश में अन्न,फल,दूध-दही आदि सभी कुछ प्रचुर मात्रा में रहते हुए भी,यहाँ के लोगों को जानबूझकर दुःखी और वंचित करने का एक मात्र कुकृत्य यहाँ के भ्रष्ट,पतित,अपराधी व्यभिचारी,क्रूर और असहिष्णु कथित नेताओं की दुर्नीतियों की वजह से हो रहा है ! जब तक यहाँ की राजनीति में अपराधियों,माफियाओं,झूठों, मक्कारों जुमलेबाजों, दंगाजीवियों, हत्यारों, मॉफियाओं, गुँडों, मवालियों और लंपटों का वर्चस्व रहेगा, तब तक इस देश के बहुसंख्या में लोग हमेशा दुखी रहेंगे । इस दुखद स्थिति में तभी सुधार होगा, जब इस देश का नेतृत्व युवा, कर्मठ,ईमानदार,सच्चरित्र,शिक्षित वर्ग के हाथों में सत्ता आयेगी,नहीं तो कोई आश्चर्य नहीं कि यह देश इन सत्ता-पिपासुओं के हाथों अगले सालों में इस देश को खुशहाली की सूची के 156 वें अन्तिम पायदान पर भी पहुँचने को अभिशापित होना पड़ जाय ! पूरे देश की जनता एक तरफ भूख, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, कुपोषण आदि गंभीरतम् और मूलभूत समस्याओं से त्रस्त रहे और दूसरी तरफ दिल्ली के बोट क्लब पर कुछ रईसों के समूह और उनके दलाल सत्ता के कर्णधारों के रंगारंग गणतंत्र दिवस मना लेने मात्र से यह देश कभी भी गणतांत्रिक और खुशहाल देश नहीं बन पाएगा ।*
*निर्मल कुमार शर्मा,*
*गौरैया एवम् पर्यावरण संरक्षक*
*nirmalkumarsharma3@gmail.com_*
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8. *तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?*
ये कैसी आज़ादी है... ये किसकी आज़ादी है
मुट्ठीभर लोगों को छोड़ के भूखी नंगी हर आबादी है
जितना देश तुम्हारा है ये उतना देश हमारा है
भारत की मेहनतकश जनता ने इसे संवारा है
ऐसा क्यों है कहीं ख़ुशी है और कही बर्बादी है
ये कैसी आज़ादी है... ये किसकी आज़ादी है
मुट्ठीभर लोगों को छोड़ के भूखी नंगी हर आबादी है
अंधियारों से बाहर निकलो अपनी शक्ति जानो तुम
दया धरम की भीख न मांगो हक़ अपना पहचानो तुम
अन्याय के आगे जो झुक जाए वो अपराधी है
ये कैसी आज़ादी है... ये किसकी आज़ादी है
मुट्ठीभर लोगों को छोड़ के भूखी नंगी हर आबादी है
जिन हाथों में काम नहीं है उन हाथों को काम भी दो
मजदूरी करने वालो को मजदूरी के दाम भी दो
बूढ़े होते हाथ पाँव को जीने का आराम भी दो
दौलत के हर बटवारे में मेहनत कश का नाम भी दो
झूठो के दरबार में अब तक सच्चाई फरियादी है
ये कैसी आज़ादी है... ये किसकी आज़ादी है
मुट्ठीभर लोगों को छोड़ के भूखी नंगी हर आबादी है
माफ़ करना मै इस आज़ादी की बधाई नही दे सकता हूँ, हम सभी जानते है की इस आज़ादी के लिए हमारे कई क्रांतिकारी साथियों ने अपने खून से सींचा है, इस धरती को, इस मिट्टी को, लेकिन उनका ये बलिदान व्यर्थ हो गया है, क्रांतिकारी साथियों की शहादत को हमने पचा भी लिया है और डकार भी नहीं लिया। जिस देश में जन्मजात कुछ दिनो के मासूम बच्चे साथ बलात्कार किया जाता है। आज स्थिति ये है कि आपकी जवान बेटी आधी रात को 2 किलोमीटर पैदल भी सुरक्षित नहीं चल सकती तो क्या यही है आजादी…. आज NCRB की रिपोर्ट के हिसाब से हर मिनट में सैकड़ो बलात्कार हो रहें हैं, ये कैसी आजादी है जहाँ देश की बहन बेटियां सुरक्षित सड़को पर भी न चल सकती। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
यँहा कुछ लोगों द्वारा कुछ लोगों के लिए यह व्यवस्था बनाई गई है और बहुसंख्यक जनता पर थोप दी जाती है और कहा जाता है जनता के द्वारा जनता के लिए! सुनने में कितना सुंदर लग रहा है, और इसी सुंदरता से हमें समझाया और हम समझने भी लगे कि हमारे द्वारा यानी जनता द्वारा चुनी हुई हमारी यानी जनता की सरकार है और हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मानकर खुश होते हैं। ये कैसा लोकतंत्र है? ये कैसी आजादी है? जंहा इतनी आजादी है कि हमारे हाँथ-पांव की बेड़िया खोल कर चारो तरफ गड्ढ़ा खोदकर कहते हैं कि जाओ आप आजाद हैं, एसी ही आजादी है इस तथाकथित लोकतंत्र में। एक तरफ तो कहते हैं कि हम सभी भारतीयों को अभिब्यक्त की आजादी है मगर जब हम अपनी बात कहते हैं तो हमारे ऊपर UAPA जैसा काला कानून लगाकर जेल में ठूंस देते हैं। ये कैसी आजादी है इस तथाकथित लोकतंत्र में! जंहा कहते हैं जाओ शापिंग माल खोलो, जाओ कारखाना खोलो, जाओ कार खरीदो, जाओ हेलिकॉप्टर खरीदो, जाओ चुनाव लड़ो किसने मना किया है। अरे भई इतनी आजादी तो गुलाम भारत में गोरो के राज में भी थी। तब भी लोगों को बोलने की आजादी थी और तब भी कार खरीदने, शापिंग माल खोलने, कारखाना खोलने की आजादी तब भी थी। मगर तब भी लोगों के पास ये सब खरीदने के लिए ना पैसे थे और ना आज है। तब भी लोगों के पास कुछ ना कुछ था और अब भी कुछ ना कुछ है। तब भी लोगों को कुछ ना कुछ मिलता था अब भी कुछ ना कुछ मिलता है। ये कुछ ना कुछ कोई व्यवस्था आ जाए हमेशा मिलेगा। हां गोरो के समय ना वोट देनें का अधिकार था और ना ही चुनाव लड़ने का। बस इतना ही अंतर है गोरो और कालों के शासन में, और यदि यदि वोट देना और लड़ना से जनता का भला होता तो भारत को आजाद हुवे 74 साल हो चुके हैं तो आखिर क्या बदला ये लोकतंत्र आने से? ये सवाल आपके लिए छोड़े जा रहा हूं। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
अब वर्तमान में लोकतंत्र के स्वरूप की बात करते हैं। आज देश में लोकतंत्र स्थापित हुवे 68 साल से ऊपर हो गए। क्या बदलाव आया भारत के बहुसंख्यक जनता के जीवन में? 2019 में ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट आयी थी, उस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1% लोगों के पास 73% संपत्ति इकट्ठा हो चुकी है। वहीं नीचे की 60% आबादी सिर्फ 4.8 % पर गुजारा करने को मजबूर है। नीचे के 65 करोड लोगों के पास जितनी संपत्ति है। उससे अधिक संपत्ति ऊपर के सिर्फ नौ पूजी पतियों के पास इकट्ठा हो चुकी है। वास्तविक स्थिति इससे भी अधिक भयावह है। "जागरूक इन" की फरवरी 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल 2 लाख 63 हजार करोड़पति हैं और 138 अरबपति हैं। यह करोड़पति एवं अरबपति रुपए के लिहाज से नहीं डालर के लिहाज से करोड़पति और अरबपति हैं। जो 1% अमीर लोग हैं, जिनके पास आज 2020 में लगभग 80% सम्पत्ति इकट्ठा हो चुकी होगी, भारत की आबादी तकरीबन 138 करोड़ है। 138 करोड़ लोगों में से अधिकतम 2 लाख लोग ऐसे होंगे जो बड़ी जमीनों, बड़े कल-कारखानों, खान-खदानों, शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों आदि उत्पादन के संसाधनों के मालिक हैं। तो ये लोकतंत्र किसके लिए है। ये 1% जनता के लिए या फिर भारत की बहुसंख्यक जनता के लिए। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
आज भारत को आजाद हुए 74 वर्ष हो चुके हैं। ये कैसी आजादी है? और किसकी आजदी है? ये झूठी आजादी है! जिस घर में पहले एक कार होती थी, उस घर में हर सदस्य के लिए अलग-अलग कारें हैं। जो हजारपति थे, वे लखपति हो गए हैं। जो लखपति थे, वे करोड़पति और करोड़पति, अरबपति बन गए हैं। क्या बदला इस आजादी से? बस आजादी से पहले मुट्ठीभर लोगों के पास ही उत्पादन के संसाधनों का ही कब्जा था और आज भी मुट्ठीभर लोगों का ही कब्जा है। इन 74 सालों में क्या बदला? बस बदलीं तो सरकारें! सरकारें आती और जाती रही, बदलाव आया तो केवल अमीर, पूंजीपतियों के जीवन मे! आज भी भारत की भूखी, नंगी मेहनतकश जनता अपनी भूख से आजादी! महंगाई से आजादी! भ्रष्टाचार से आजादी! बेरोजगारी से आजादी!…. के लिए संघर्ष कर रही है। ये आजादी झूठी है! ये आजादी एक भ्रम है! ये आजादी एक धोखा है! इस आजादी से सिर्फ मुट्ठीभर लोगों का ही विकास हुवा है। रोजमर्रा के जीवन जीने वाले मेहनतकश जनता के जीवन मे थोड़ा सा…. वो भी लगातार संघर्ष जारी है इस महंगाई, भ्रष्टाचार, सूदख़ोरी, बेरोजगारी, तंगहाली…. से, और आज हम और भी भयानक स्थिति मे जी रहे है। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन कहते है की एक करोड़पति बनने मे कई हजार लोगों को गरीब होना पड़ता है…. हालत देश की ऐसी है की देश की 90% संसाधनों पर देश के 1% लोगों का कब्ज़ा है। कहने को तो देश का विकास के साथ-साथ जनता का भी विकास हुवा है, पर वहीं दूसरी ओर कड़वा सच यह भी है कि देश के लगभग 70 प्रतिशत लोग केवल 100 रु. प्रतिदिन पर गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। तकरीबन 30 करोड़ लोगों को बमुश्किल से एक वक्त का भोजन नसीब होता है। सेनगुप्ता आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, बेघरों की संख्या बढ़ रही है और लगातार बढ़ती जा रही है। बेरोजगारों की फौज खड़ी है। गरीबी ऐसी है कि कुछ लोगों को अपने तन ढकने के लिए भी पर्याप्त कपड़े नहीं मिल रहे हैं। सरकार ने यह मानक तय कर रखा है की अगर शहर में 32 रुपये और गांव में हर रोज 26 रुपये खर्च करते है तो आप गरीब नहीं माने जायेंगे। लेकिन अमीर की जिंदगी का कोई रेट तय नहीं है। क्या ये गरीबों के साथ मजाक नहीं की 26 से 32 रुपए कमाने वाला गरीब नहीं। ये गरीब मेहनतकश जनता दिनभर दो वक्त की रोटी के लिए हांड-तोड़ की मेहनत करते हैं फिर भी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ नहीं कर पाता है तो ऐसे लोगों को न तो स्वतंत्राता दिवस या गणतंत्रा दिवस से मतलब होता है और न उन्हें इन सबकी जानकारी होती है। ऐसे लोगों को यह भी नहीं पता कि स्वतंत्राता क्या होती है, और परतंत्राता किस चिड़िया का नाम है। इनकी दिनचर्या दो जून की रोटी का जुगाड़ करने तक ही सीमित है। इनके लिए स्वतन्त्रा के क्या मायने हैं? देश की मेहनतकश जनता 1947 से पहले भी गुलाम थी और आज भी गुलाम हैं। बस फर्क इतना है कि पहले गोरों के गुलाम थे और आज कालों के गुलाम हैं। भारत की मेहनतकश जनता गोरे अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त तो हुए हैं, पर काले अंग्रेजों के गुलाम अभी भी हैं। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
आजादी क्या है? विकास क्या है? क्या डंडे के दम पर लाया गया विकास अथवा मेहनतकश जनता से जबरदस्ती जमीन छीन कर लाया गया विकास जनता के पक्ष में माना जा सकता है? यह कैसा विकास है? किसके गले को दबा कर? किसकी झोंपड़ी जला कर? किसकी बेटी को नोच कर? किसके बेटे को मार कर? किसकी ज़मीन छीन कर? असल में यही विकास किया जा रहा है? और हकीकत भी यही है कि देश के मेहनतकश को उजाड़ कर उनकी ज़मीने कुछ धनपतियों को दे देना ही विकास है। क्या लोगों को यह पूछने का हक नहीं है की हमारी ज़मीन छीन लोगे तो हम कैसे जिंदा रहेंगे? जब तक देश के समस्त संसाधनों का उपयोग सभी वर्गों के लिए उचित ढंग से नहीं होगा तब तक हमारी आजादी अधूरी है। शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा आदि सुविधाओं की ही बात ले लीजिए। कुछ अपवादों की बात छोड़ दें। क्या किसी गरीब का बच्चा पढ़ाई में तेज होते हुए भी आई.ए.एस., आई.पी.एस., डॉक्टर, इंजीनियर आदि बन सकता है? बिल्कुल नहीं। क्योंकि पूरे देश में आज कुल सरकारी नौकरी मात्र 1 करोड़ के आस-पास ही बची हैं, तो मिलेगा कुल 1 करोड़ लोगों को ही तो सरकारी नौकरी मिलेगी। दिखाने के लिए कि मेहनत करो सफल हो जाओगे देखो फलनवा मोची/चपरासी/सब्जीवाला/रिक्शेवाला…. का लड़का/लड़की ने खूब मेहनत से दिल लगाकर पढ़ाई किया तो आज कलेक्टर/फलां अधिकारी/फलां कर्मचारी बन गया की बात बताते हैं। पर ये नहीं बताते कि गिनती के पोस्ट ही बची है और उस पोस्ट पर अप्लाई करने वाले लाखों ही नहीं करोड़ों लोग हैं तो हम कितनी भी कड़ी परिश्रम से तैयारी कर लें नौकरी तो कुछ को ही मिलेगी और वो भी घूंस देकर भ्रष्टाचार से ही। एक इंजीनियर या डॉक्टर की पढ़ाई में लाखों रुपये खर्च होते हैं। किसी भी आई.आई.एम., जहां से वित्तीय विशेषज्ञ निकलते हैं कितने लोग सक्षम होते हैं अपने बच्चों को पढ़ाने में। इन प्रोफेशनल कोर्सेज तो दूर की बात ग्रेजुवेसन में बी ए तक की फीस भरने में सक्षम नहीं है तो फिर ये महंगे प्रोफेशनल कोर्सेज की फीस आम मेहनतकश जनता कैसे भरेगी? इस हालात में भला एक गरीब आदमी अपने बच्चे को डॉक्टर, इंजीनियर या अर्थ विशेषज्ञ कैसे बना सकता है? जबकि जिनके पास धन है, उनके बच्चे देश ही नहीं, विदेश में पढ़ रहे हैं। जिस भारत को लोकतांत्रिक और कल्याणकारी राज्य कहा जाता है, वहां सबका ‘कल्याण’ क्यों नहीं हो रहा है? सरकार यह क्यों नहीं सुनिश्चित कर रही है कि मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि की प्रतियोगी परीक्षाओं में जितने भी विद्यार्थी सफल होंगे उनकी आगे की पढ़ाई का खर्चा सरकार उठाएगी? और नौकरी भी देगी। कहने को तो सरकार उच्च शिक्षा के लिए बच्चों को शिक्षा ऋण उपलब्ध कराती है। किन्तु शिक्षा ऋण देते समय बैंक वाले ऐसे-ऐसे नियम बताते हैं कि उनमें एक गरीब आदमी कहीं नहीं टिकता है। जिस बच्चे को शिक्षा ऋण दिया जाता है उसके माता-पिता की पासबुक देखी जाती है कि लेन-देन का क्या स्तर रहता है? घर-मकान देखा जाता है। प्रतिमाह की आय देखी जाती है। इसके बाद ही शिक्षा ऋण स्वीकृत होता है। इस हालत में एक गरीब के होनहार बच्चे को शिक्षा ऋण नहीं मिल पाता है। इस देश में कार लोन आसानी से मिल जाता है पर शिक्षा ऋण? और तो और कार लोन की ऋण दर शिक्षा ऋण से कंही सस्ती! यदि किसी गरीब का प्रतिभाशाली बच्चा पैसे के अभाव में डॉक्टर, इंजीनियर, आफिसर…. नहीं बन सकता है, तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
चिकित्सा भी इतनी महंगी है कि एक गरीब बीमार आदमी इलाज के अभाव में दम तोड़ रहा है। सरकारी अस्पतालों में भी तरह-तरह की जांच के नाम पर पैसा जमा कराया जाता है। निजी अस्पतालों की ओर तो गरीब आदमी आंख उठाकर देख भी नहीं सकता है। यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी है? देश के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित अस्पताल एम्स, एम्स ही नहीं कई सरकारी संस्थान हैं अलग-अलग प्रदेशों में और हर राज्य से अमीर-गरीब हर तरह के लोग इलाज के लिए जाते हैं इन संस्थानो में। यहां कई ऐसी जांचें होती हैं, जिनके लिए मरीजों को पैसा जमा करना पड़ता है और वो भी अच्छी खासी रकम और तो और जांच के बाद इलाज के लिए भी एक मोटी रकम वसूला जाता है, गरीब से गरीब मरीज को भी कोई छूट नहीं मिलती है, किन्तु यहीं उन लोगों को इलाज के लिए कुछ नहीं देना पड़ता है, जो सरकार से मोटी तनख्वाह पाते हैं। यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी है?
महंगाई बढ़ती है, तो सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों और संगठित क्षेत्र में काम करने वालों को महंगाई भत्ता दिया जाता है। किन्तु मजदूरों, किसानों और इस तरह के अन्य लोगों को कोई महंगाई भत्ता नहीं मिलता है। ये लोग किस हालत में जीते हैं, इसकी भी सुध लेने वाला कोई नहीं है। इन मेहनतकशों के घर में चूल्हा जला है या नहीं? चूल्हा जलाने के लिए ईधन की व्यवस्था है या नहीं? दो वक्त की रोटी के लिए अन्न है या नहीं? सरकार भी कोई सुध नहीं ले रही है तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
देश मे अपराध मे दिन प्रतिदिन बढ़ोतरी हो रही, चाहे रेप के मामले हो या हत्या, चोरी, लूटमार अन्य की घटनाएं…. आज स्थिति ऐसी है की देश के अधिकतर नौजवान चोरी, डाका डाल रहें हैं रोजगार के अभाव में! चंद पैसे के लिए हत्या तक कर डाल रहें हैं…. अंग्रेजों ने जो भवन, पुल, स्मारक आदि बनवाए थे, वे आज भी शान के साथ मजबूती से खड़े हैं। किन्तु आजादी के बाद बने भवन या पुल जर्जर घोषित हो चुके हैं क्योंकि पहले के मुकाबले भ्रष्टाचार लगातार बढ़ता ही जा रहा है, ऐसा नहीं है के गोरे अंग्रेजों के समय में भ्रष्टाचार नहीं था तब भी था और आज भी है। पर पहले कम था और आज भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। जो करोड़ों रु. से कोई फ्लाईओवर बनता है और 5-10-12 साल में ढह जाता है। जनता को लूटो, खुद की तिजोरी भरो और जनता पर एहसान जताओ। जिसमें लोग राष्ट्रहित से ज्यादा स्वहित को महत्व दे रहे हैं? चाहे नेता हों या अभिनेता, अमीर हों या गरीब, दुकानदार हों या ग्राहक, सभी अपने हित के लिए लड़-झगड़ रहे हैं, किन्तु कोई राष्ट्रहित के लिए नहीं लड़ रहा है। बस सभी के दिल में राष्ट्रवाद की घुट्टी भर देना है कि सारे जंहा से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा! हम भूखे मर जाएं/हम भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हों/महंगाई से हालात बुरे हों/रोजगार ना हो फिर भी मेरा भारत महान! तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
नई पीढ़ी को शिक्षा तो ऐसी दी जा रही है कि वह काम करने वाली मशीन बनती जा रही है। देश की शिक्षा पर्णाली में सिर्फ देशभक्ति का पाठ पढ़ाया जाता है। निजी सम्पति के बढावे की सीख दी जाती है। इस कारण एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है, जिसमें संवेदनहीनता/धैर्यहीनता/एकाकीपन…. दिखने लगी है। कुछ बच्चे इतने असंवेदनशील हो रहे हैं कि उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपनी सुविधाओं से मतलब है। घर में मां बीमार रहती है और ऐसे बच्चे उससे पूछते तक नहीं हैं कि मां तुम कैसी हो? हां, जब भूख लगेगी तो जोर-जोर से चिल्लाकर बीमार मां के कांपते हाथों को रोटी बनाने के लिए मजबूर कर देंगे। और तो और संयुक्त परिवार में रहना भी नहीं चाहेंगे। एकल परिवार की तरफ लगातार बढ़ते जा रहें हैं। हम एक ऐसे देश में जी रहे हैं जहां देश के बंटवारे को आजादी और देश बांटने वालों को देशभक्त कहा जाता है टुकड़े-टुकड़े करने वाले को शांतिदूत कहा जाता है तथा जाति-धर्म के नाम पर जनता को जनता से लड़ाने वालों को मसीहा, गुण्डों-माफियाओं को समाजसेवक कहा जाता है और यही समाजसेवक मेहनतकश जनता को आपस में लड़ाती है। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
करोड़ों मेहनतकशों को भूख और गरीबी में रख कर। उनकी आवाज़ को पुलिस के बूटों तले दबा कर लाई गयी खामोशी को हम कब तक शान्ति मानते रहेंगे? इस देश के शासक वर्ग ने इस देश की आज़ादी के वक्त वादा किया था कि गरीब की हालत सुधारी जायेगी! गरीबी खत्म की जाएगी। गरीबी तो छोड़िए गरीबों को ही खत्म कर रहें हैं और गाँव वालों की ज़मीने छीनने के लिए सेना-पुलिस को ही भेज रहे हैं तो आप ही बताएं कि यह किसकी सरकार है? ये आजदी किनकी है?अगर आजादी से पहले गोरे पूंजीपतियों के लिए गोरी पुलिस द्वारा जमीन छीना जाता था और अब हमारे अपने देश के विकास के लिए हमारे ही देश के मेहनतकश जनता पर हमारी अपनी ही पुलिस हमला कर रही हो तो क्या ये मेहनतकश की आज़ादी है? हमने आज़ादी के बाद कौन सा विकास का काम बिना पुलिस के डंडे की मदद से किया है? तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
कल को जब यही लोग गाँव से उजड़ कर मजदूरी करने शहर में आ जाते हैं तब हम यहाँ भी उनकी बस्ती पर बुलडोज़र चलाते हैं। उनकी ज़मीने छीन कर बनाए कारखाने में काम करने जब यह लोग मजदूरी करते हैं और पूरी मजदूरी मांगते हैं तो हमारी लोकतंत्र की आजाद जनता की आजाद पुलिस मेहनतकश मजदूरों को पीटती है। ये कैसी पुलिस है? और किसकी पुलिस है? जो कभी गरीब की तरफ होती ही नहीं? ये कैसी अदालत है जो कभी भी गरीबों की रुदाली दिखाई देती नहीं। कभी किसी रिक्शेवाले से सुना है कि तुम्हे अदालत में देख लेंगे। चमचमाती चारपहिया गाड़ी से उतरने वाला ही धमकी देता है कि तुम्हें अदालत में देख लेंगे। ये कैसी सरकार है जो हमेशा अमीर की ही तरफ रहती है। ये कैसी आजादी है? जहां देश के बहुसंख्यक जनता को ही सताया जा रहा है। और ये कैसा समाज है जो खुद को सभ्य कहता है पर जिसे यह सब दिखता ही नहीं है। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
आखिर में रही-सही कसर भ्रष्टाचारियों और वोट बैंक की राजनीति ने पूरी कर दी है। गोरे अंग्रेजों के जाने के बाद इस देश को काले अंग्रेज जम कर लूट रहे हैं। लूट का पैसा विदेशी बैंकों में जमा कर रहे हैं। फूट डालो और राज करो’ की नीति पर चलकर भारत की जनता को एक ही जाति के अन्दर उपजाति में ही लड़ाकर अपनी रोटी सेंक रहें हैं, साथ ही धर्म/रंग/छेत्र/भाषा/लिंग…. में बांटकर अपनी रोटी सेंक रंहे हैं और ये सारी कवायद वोट की राजनीति के लिए कर रहें हैं, जिस तरह व्यापार के लिए लोग पोल्ट्री फॉर्म चलाते हैं, वैसे यहां के राजनीतिक दल वोटरों को पालने के लिए ऐसी योजनाएं चला रहे हैं, ये मेहनतकश जनता पोल्ट्री फार्म के मुर्गे से ज्यादा मायने नहीं रखती है शासक वर्ग के लिए! 17-18 रुपए किलो का अनाज खरीदकर लोगों को 3 रुपए किलो में और फिलहाल तो मुफ्त में इसलिए दे रही है, ताकि वे जिंदा रहकर सरकार के गुण गा सकें और जिंदा रहने को ही विकास मान लें और इसीको आजादी मानकर सरकार को वोट दे कर लोकतंत्र को महान बना देते हैं। शासकवर्ग का काम वोट लेना और मेहनतकश जनता यानी शोषित/उत्पीड़ित जनता वोट देना बस मात्र यही एक काम है इस लोकतंत्र में। जनता से कोई लेना-देना नहीं। उनके लिए तो जनता की उस पोल्ट्री फार्म के मुर्गे से ज्यादा अहमियत नहीं है। उस मुर्गे को जिंदा रहने और अपने मुनाफे के लिए दाना-पानी देते रहो, वैक्सीन और इलाज करते रहो और फिर डेढ़ दो महीने बाद उस मुर्गे को मुनाफे पर बेंच देते हैं उसी तरह जनता को हर पांच साल पर वोट देने के लिए, जीवित रखने के लिए मुफ्त का राशन देती है, उधोगपतियो को मुनाफा पहुंचाने के लिए वैक्सीन भी जनता को मुफ्त में लगवाती है अब जनता को लगता है कि देखो सरकार कितनी दयालू है, मुफ्त में वैक्सीन दे रही है पर ये नहीं सोचती कि इस वैक्सीन की कीमत सरकारी खजाने से निकाल कर उद्योगपति को दे चुकी है और जो पैसा दिया गया है वो जनता का ही है तो फिर काहे का एहसान। पर इसी एहसान का ही तो पूरा खेल है और इसी एहसान के बदले सरकार से कोई सवाल नहीं करते। और उधर सरकार अपने और अपने पूंजीवादी आकाओं के मुनाफे लिए ऐसे ही मार दे रही है जैसे आज मार रही है। इनकी नीतियों से देश भले ही कमजोर हो जाए, खंड-खंड हो जाए, पर इनका वोट और नोट का बैंक लबालब भरा रहे। यही इनकी नीति है। मजहब के नाम पर सरकारी नीतियां बनाई जा रही हैं। जो जनता नहीं मांग रही है वो जबरदस्ती दी जा रही है जैसे आरक्षण, आरक्षण किसी ने नहीं मांगा, मांग तो रोजगार की है पर इस व्यवस्था में रोजगार ना होने के कारण लोगों को आपस में लड़ाने के लिए आरक्षण दिए जा रहें हैं। आज आरक्षण की ये स्थिती हो गयी है कि आरक्षण खत्म करेंगे नहीं और नौकरी देंगे नहीं बस आरक्षण का लड्डू दिखाकर ललचवाए हुवे हैं। 100 नौकरियां थी 99 खत्म कर दीं, 99 खत्म हूई नौकरी पर सरकार से कोई लड़ाई नहीं बस एक बची हूई नौकरी पर आरक्षण समर्थक और आरक्षण विरोधी उसी एक नौकरी पर ही आपस में लड़कर शासक वर्ग का काम आसान बना दे रहें हैं। इसी तरह वो जनता को लड़ाते हैं। शाराब किसी ने डिमांड नहीं की फिर भी दिए जा रहें हैं, गंदी फिल्मे/मैगजीन किसी ने नहीं मांगी फिर भी दिए जा रहें हैं इसी तरह बाजार में सैकड़ो सामान बगैर किसी जनता के डिमांड के अपने प्रचार माध्यम से परोस रहें हैं। अपने हिसाब से एक सामान तक नहीं खरीद सकते तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
इस आजादी की खूबी भी देखें कि जहां अमीर लोग अपने ही देश के गाँव में रहने वालों की ज़मीने छीनने के लिए चुनी हुई सरकार की सहायता से आजाद भारत की आजाद सेना, पुलिस भेजते हैं। और जब ये मेहनतकश वर्ग विरोध करते हैं तो इन्हीं सेना पुलिस के जरिए लाठी और गोली चलवाते हैं। ये है भारत के लोकतंत्र और आजादी की खूबी। अब इस कोरोना काल में देखें कि चुनाव रैली में भीड़ लगाने पर कोई पाबंदी नहीं पर वंही जंहा चुनाव खत्म वैसे ही दो वक्त की रोटी के लिए कोई दुकानदार दुकान खोलकर कुछ बेँचता है तो ₹10000/- का जुर्माना और साथ लाठी मुफ्त में इन्ही आजाद पुलिस वालों के जरिए। जितनी बचत वो महीने भर में करता है वो एक झटके में वसूल लेता है कानून के नाम पर। पर वो दुकानदार इस पर भी रिस्क लेता है जुर्माना और लाठी खाने का क्योंकि पेट का सवाल है और इसी पेट की रोटी के लिए दुकान के बाहर खड़ा रहता है कि कोई ग्राहक आए तो शटर उठा के सामान देने के लिए। और बेचारा मजदूर जो डेली दिहाड़ी करके खाता है उसके पेट के लिए तो सारे रास्ते बन्द। वो मजदूर दो वक्त की रोटी की व्यवस्था कर पाता होगा या नहीं सोच कर रूह कांप जाती है। क्या यही है भारत की आजादी की खूबी? यही मुट्ठीभर लोग सेना, पुलिस द्वारा आदिवासियों की जमीने हड़प रहें हैं। उनके जंगलो से खनन कर लौह अयस्क और अन्य खनिज पदार्थ निकालकर बदस्तूर लूट कर रहें हैं, जिसके लिए उन्ही के जंगलों से आदिवासियों को बेदखल कर रहें हैं, विरोध करने पर सेना पुलिस से लाठियां दी जा रहीं हैं, महिलाओं/बच्चियों से बलात्कार कर रहें हैं, नक्सली/मावोवादी घोषित कर जेल में डाल दे रहें हैं, गोली तक मार दे रहें हैं। इसी तरह से जो भी लोग सत्ता और कारपोरेट के अन्याय, शोषण के खिलाफ लिख रहे या बोल रहे उन्हें नक्सली, देशद्रोही, मुल्ले, पाकिस्तानी कह कर या तो हत्या की जा रही या फिर जेल मे डाला जा रहा है। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
यह कैसे शिक्षित और सभ्य लोग हैं जिनके लिए क्रिकेट और फ़िल्मी हीरो हीरोइनों की शादी ज्यादा महत्वपूर्ण है। ये देश की कैसी मीडिया है जो आई पी एल जैसे क्रिकेट मैच पर चर्चा करना ज्यादा महत्वपूर्ण है पर देश में रोजगार, महंगाई, भ्रष्टाचार, सूदखोरी…. पर चर्चा करना कतई महत्वपूर्ण नहीं है और तो और अमिताभ बच्चन के बीमार होने पर खबर दिखाना कि अमिताभ ने आज खाना खाया कि नहीं, आज रात ठीक से नींद आयी की नहीं, शिल्पा शेट्टी ने आज अपने बगीचे में बैगन उगाया, विराट कोहली के कुत्ते की तबीयत खराब होने तक की खबर दिखाता है ये मीडिया पर देश में चारों ओर फैले अन्याय की तरफ दिखाने की हिम्मत तक नहीं और हमें भी देखने की भी ज़रूरत ही महसूस नहीं हो रही है! ऐसे में हमें क्या लगता है? सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा? माफ़ कीजिये कुछ लोग उधर कुछ कानाफूसियाँ कर रहे हैं। कुछ लोग लड़ने और कुछ बदलने की बात कर रहे हैं। अब ये आप के ऊपर है की आप इस सब को प्रेम से बदलने के लिए तैयार हो जायेंगे या फिर इंतज़ार करेंगे की लोग खुद ज़बरदस्ती से इसे बदलें? लेकिन एक बात तो बिलकुल साफ़ है! आप को शायद किसी बदलाव की कोई ज़रुरत ना हो क्योंकि आप मज़े में हैं। पर जो तकलीफ में है वह इस हालत को बदलने के लिए ज़रूर बेचैन है। दब जाने पर चींटी भी मुड़कर काट लेती है। देखना है जनता कब तक चींटी से भी बदतर बनी रहेगी.....
उतरे हुए चेहरों तुम्हें आज़ादी मुबारक
उजड़े हुए लोगों तुम्हें आज़ादी मुबारक
सहमी हुई गलियों कोई मेला कोई नारा
जकड़े हुए शहरों तुम्हें आज़ादी मुबारक
ज़ंजीर की छन-छन पे कोई रक़्सो तमाशा
नारों के ग़ुलामों तुम्हें आज़ादी मुबारक
अब ख़ुश हो? कि हर दिल में हैं नफ़रत के अलाव
ऐ दीन फ़रोशों(धर्म बेचने वालों) तुम्हें आज़ादी मुबारक
बहती हुई आँखों ज़रा इज़हारे मसर्रत(प्रसन्नता)
रिसते हुए ज़ख़्मों तुम्हें आज़ादी मुबारक
उखड़ी हुई नींदों मेरी छाती से लगो आज
झुलसे हुए ख़्वाबों तुम्हें आज़ादी मुबारक
टूटे हुए ख़्वाबों को खिलोने ही समझ लो
रोते हुए बच्चों तुम्हें आज़ादी मुबारक
फैले हुए हाथों इसी मंज़िल की तलब थी?
सिमटी हुई बाहों तुम्हें आज़ादी मुबारक
हर ज़ुल्म पे ख़ामोशी की तसबीह में लग जाओ
चलती हुई लाशों तुम्हें आज़ादी मुबारक
मसलक के, ज़बानों के, इलाक़ों के असीरों(क़ैदियों)
बिखरे हुए लोगों तुम्हें आज़ादी मुबारक
ऐ काश लिपट के उन्हें हम भी कभी कहते
कश्मीर के लोगों तुम्हें आज़ादी मुबारक
लोगों के मन में भर दिया, धर्म को लेके एक दूसरे के प्रति नफरत
ये सांप्रदायिक जहर फैलाने वाली आजादी तुम्हें मुबारक
ये कैसी आजादी है, किसकी आजादी है
ऐ कहने वाली तथाकथित आजादी तुम्हें मुबारक
चलने के लिए खोल खोल दी पैरों से बेड़िया
मगर कर दिए चारो तरफ खाई और गड्ढे, आजादी तुम्हें मुबारक
महंगाई से है बुरा हाल, रोजगार की नहीं कोई बात
कुछ ना कुछ मिलने वाली आजादी तुम्हें मुबारक
ना सर पर छत, ना खाने को भोजन
ऐ भारत के लोगों ये झूटी आजादी तुम्हें मुबारक
यह मूल कविता पाकिस्तान के मशहूर युवा शायर अहमद फरहाद की है, जिसे कल 14अगस्त को पाकिस्तानी स्वतँत्रा दिवस पर लिखा था। इसको एडिट करने के बाद शेयर कर रहां हूँ।
*अजय असुर*
*राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा उ. प्र.*
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9. *कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है?*
✍ आलोक रंजन, आनंद सिंह
📱 http://www.mazdoorbigul.net/archives/9627
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जिस देश में मात्र 1 प्रतिशत लोग समाज की 73 प्रतिशत से भी अधिक सम्पदा पर क़ब्ज़ा जमाकर बैठे हों, जहाँ कड़कड़ाती ठंड में भी 18 करोड़ से भी ज़्यादा लोग फुटपाथ पर सोने को मजबूर हों, जहाँ गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के दिन देश के हर शहर में बच्चों द्वारा अपना पेट भरने के लिए देश का झंडा बेचना आम बात हो उसमें शासक वर्गों द्वारा प्रायोजित सैन्य ताक़त के अश्लील प्रदर्शन में शामिल होने बजाय *बेहतर यह होगा कि हम इस तथाकथित लोकतंत्र और उसकी 'पवित्र पुस्तक' संविधान के निर्माण की प्रक्रिया को समझें और जानें कि इसका वर्तमान जनविरोधी चरित्र कोई विचलन नहीं है, बल्कि यह इसके जन्मकाल से ही इसकी अभिलाक्षणिकता रही है।*
आज यह बुनियादी सवाल उठाये जाने की जरूरत है कि हम जिस सम्प्रभु, समाजवादी जनवादी (लोकतान्त्रिक) गणराज्य में जी रहे हैं, वह वास्तव में कितना सम्प्रभु है, कितना समाजवादी है और कितना जनवादी है?
*पिछले सत्तर वर्षों के दौरान आम भारतीय नागरिक को कितने जनवादी अधिकार हासिल हुए हैं? हमारा संविधान आम जनता को किस हद तक नागरिक और जनवादी अधिकार देता है और किस हद तक, किन रूपों में उनकी हिफाजत की गारण्टी देता है? संविधान में उल्लिखित मूलभूत अधिकार अमल में किस हद तक प्रभावी हैं? संविधान में उल्लिखित नीति-निर्देशक सिध्दान्तों से राज्य क्या वास्तव में निर्देशित होता है?* ये सभी प्रश्न एक विस्तृत चर्चा की माँग करते हैं। इस पुस्तक में हम थोड़े में संविधान के चरित्र और भारत के जनवादी गणराज्य की असलियत को जानने के लिए कुछ प्रातिनिधिक तथ्यों के जरिये एक तस्वीर उपस्थित करने की कोशिश करेंगे।
*किसी भी चीज के चरित्र को संक्षेप में, सही-सटीक तरीके से समझने के लिए, ऊपरी टीमटाम और लप्पे-टप्पे को भेदकर उसके अन्दर की सच्चाई को जानने का सबसे उचित-सटीक तरीका यह होता है कि हम उस चीज के जन्म, विकास और आचरण की ऐतिहासिक प्रक्रिया की पड़ताल करें। यही पहुँच और पध्दति अपनाकर हम सबसे पहले भारतीय संविधान के निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से चर्चा की शुरुआत कर रहे हैं। इसके बाद हम संविधान सभा के गठन और संविधान-निर्माण की प्रक्रिया पर चर्चा करेंगे।* इसके बाद इसके चरित्र-विश्लेषण और भारतीय गणराज्य के चाल-चेहरा-चरित्र को जानने-समझने की बारी आयेगी।
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औपनिवेशिक भारत में संविधान-निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, इसकी निर्माण-प्रक्रिया, इसके चरित्र और भारतीय बुर्जुआ जनवादी गणराज्य की वर्ग-अन्तर्वस्तु, इसके अति सीमित बुर्जुआ जनवाद और निरंकुश तानाशाही के ख़तरों के बारे में एक विचारोत्तेजक, शोधपूर्ण, आँखें खोल देने वाली इस पुस्तक को ज़रूर पढ़ें:
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10. गणतंत्र दिवस पर "नागार्जुन" की एक कविता
किसकी है जनवरी,
किसका अगस्त है?
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है?
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियाँ भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झुठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहाँ भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसी का पन्द्रह अगस्त है
बाक़ी सब दुखी है, बाक़ी सब पस्त है…..
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलन्द आज, कौन आज मस्त है?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलन्द है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहाँ सुखी है, सेठ यहाँ मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफ़ा है, बिजली का झाड़ है
फै़शन की ओट है, सब कुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट पर पहाड़ है!
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ़्रिज है, सोफ़ा है, बिजली का झाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
ग़रीबों की बस्ती में
उखाड़ है, पछाड़ है
धत तेरी, धत तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्छो नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं…..
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है।
11. लोकतंत्र के संदर्भ में अशोक चक्रधर की कविता
डैमोक्रैसी / अशोक चक्रधर
पार्क के कोने में
घास के बिछौने पर लेटे-लेटे
हम अपनी प्रेयसी से पूछ बैठे—
क्यों डियर !
डैमोक्रैसी क्या होती है ?
वो बोली—
तुम्हारे वादों जैसी होती है !
इंतज़ार में
बहुत तड़पाती है,
झूठ बोलती है
सताती है,
तुम तो आ भी जाते हो,
ये कभी नहीं आती है !
एक विद्वान से पूछा
वे बोले—
हमने राजनीति-शास्त्र
सारा पढ़ मारा,
डैमोक्रैसी का मतलब है—
आज़ादी, समानता और भाईचारा।
आज़ादी का मतलब
रामनाम की लूट है,
इसमें गधे और घास
दोनों को बराबर की छूट है।
घास आज़ाद है कि
चाहे जितनी बढ़े,
और गदहे स्वतंत्र हैं कि
लेटे-लेटे या खड़े-खड़े
कुछ भी करें,
जितना चाहें इस घास को चरें।
और समानता !
कौन है जो इसे नहीं मानता ?
हमारे यहां—
ग़रीबों और ग़रीबों में समानता है,
अमीरों और अमीरों में समानता है,
मंत्रियों और मंत्रियों में समानता है,
संत्रियों और संत्रियों में समानता है।
चोरी, डकैती, सेंधमारी, बटमारी
राहज़नी, आगज़नी, घूसख़ोरी, जेबकतरी
इन सबमें समानता है।
बताइए कहां असमानता है ?
और भाईचारा !
तो सुनो भाई !
यहां हर कोई
एक-दूसरे के आगे
चारा डालकर
भाईचारा बढ़ा रहा है।
जिसके पास
डालने को चारा नहीं है
उसका किसी से
भाईचारा नहीं है।
और अगर वो बेचारा है
तो इसका हमारे पास
कोई चारा नहीं है।
फिर हमने अपने
एक जेलर मित्र से पूछा—
आप ही बताइए मिस्टर नेगी।
वो बोले—
डैमोक्रैसी ?
आजकल ज़मानत पर रिहा है,
कल सींखचों के अंदर दिखाई देगी।
अंत में मिले हमारे मुसद्दीलाल,
उनसे भी कर डाला यही सवाल।
बोले—
डैमोक्रैसी ?
दफ़्तर के अफ़सर से लेकर
घर की अपसरा तक
पड़ती हुई फ़टकार है !
ज़बानों के कोड़ों की मार है
चीत्कार है, हाहाकार है।
इसमें लात की मार से कहीं तगड़ी
हालात की मार है।
अब मैं किसी से
ये नहीं कहता
कि मेरी ऐसी-तैसी हो गई है,
कहता हूं—
मेरी डैमोक्रैसी हो गई है !
12. ठिठुरता हुआ गणतंत्र -हरिशंकर परसाई
चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं। इतना बेवकूफ भी नहीं कि मान लूँ, जिस साल मैं समारोह देखता हूँ, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतंत्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है। आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है? जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब मैंने एक कांग्रेस मंत्री से पूछा था कि यह क्या बात है कि हर गणतंत्र-दिवस को सूर्य छिपा रहता है? सूर्य की किरणों के तले हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते? उन्होंने कहा - जरा धीरज रखिए। हम कोशिश में हैं कि सूर्य बाहर आ जाए। पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना आसान नहीं हैं। वक्त लगेगा। हमें सत्ता के कम से कम सौ वर्ष तो दीजिए। दिए। सूर्य को बाहर निकालने के लिए सौ वर्ष दिए, मगर हर साल उसका छोटा-मोटा कोना तो निकलता दिखना चाहिए। सूर्य कोई बच्चा तो है नहीं जो अंतरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप आपरेशन करके एक दिन में निकाल देंगे। इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गए तब मैंने एक इंडिकेटी कांग्रेस से पूछा। उसने कहा - ‘हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिंडीकेट वाले अड़ंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतंत्र दिवस पर सूर्य को निकालकर बताएँगे। एक सिंडीकेटी पास खड़ा सुन रहा था। वह बोल पड़ा - ‘यह लेडी (प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है। वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो। उन्हें उम्मीद है कि बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा। हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता? मैं संसोपाई भाई से पूछ्ता हूँ। वह कहता है - ‘सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है। उसने डाक्टर लोहिया के कहने पर हमारा पार्टी-फार्म दिया था। कांग्रेसी प्रधानमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है? किसी गैर-काँग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या, उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे। जनसंघी भाई से भी पूछा। उसने कहा - ‘सूर्य सेक्युलर होता तो इस सरकार की परेड में निकल आता। इस सरकार से आशा मत करो कि भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी। हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा। साम्यवादी ने मुझसे साफ कहा - ‘यह सब सी.आई.ए. का षडयंत्र है। सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं।’ स्वतंत्र पार्टी के नेता ने कहा - ‘रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा? प्रसोपा भाई ने अनमने ढंग से कहा - ‘सवाल पेचीदा है। नेशनल कौंसिल की अगली बैठक में इसका फैसला होगा। तब बताऊँगा।’ राजाजी से मैं मिल न सका। मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है।’ मैं इंतजार करूँगा, जब भी सूर्य निकले। स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए। वह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है। स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतंत्र-दिवस ठिठुरता है। मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूँ। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है - ‘घोर करतल-ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूँ, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है। हाथ अकड़ जाएँगे। लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियाँ बज रहीं हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है। पर कुछ लोग कहते हैं - ‘गरीबी मिटनी चाहिए।’ तभी दूसरे कहते हैं - ‘ऐसा कहने वाले प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं।’ गणतंत्र-समारोह में हर राज्य की झाँकी निकलती है। ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झाँकियाँ झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं। असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहाँ प्रदर्शित करना चाहिए जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ। गुजरात की झाँकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे। पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आंध्र की झाँकी में हरिजन जलते हुए दिखाए जाएँगे। मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झाँकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं। मेरे मध्यप्रदेश ने दो साल पहले सत्य के नजदीक पहुँचने की कोशिश की थी। झाँकी में अकाल-राहत कार्य बतलाए गए थे। पर सत्य अधूरा रह गया था। मध्यप्रदेश उस साल राहत कार्यों के कारण नहीं, राहत-कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था। मेरा सुझाव माना जाता तो मैं झाँकी में झूठे मास्टर रोल भरते दिखाता, चुकारा करनेवाले का अँगूठा हजारों मूर्खों के नाम के आगे लगवाता। नेता, अफसर, ठेकेदारों के बीच लेन-देन का दृश्य दिखाता। उस झाँकी में वह बात नहीं आई। पिछले साल स्कूलों के ‘टाट-पट्टी कांड’ से हमारा राज्य मशहूर हुआ। मैं पिछले साल की झाँकी में यह दृश्य दिखाता - ‘मंत्री, अफसर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा रहे हैं। जो हाल झाँकियों का, वही घोषणाओं का। हर साल घोषणा की जाती है कि समाजवाद आ रहा है। पर अभी तक नहीं आया। कहाँ अटक गया? लगभग सभी दल समाजवाद लाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन वह नहीं आ रहा। मैं एक सपना देखता हूँ। समाजवाद आ गया है और वह बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं। पर टीले को घेरे खड़े हैं कई समाजवादी। उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊँगा। समाजवाद टीले से चिल्लाता है - ‘मुझे बस्ती में ले चलो।’ मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं - ‘पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जाएगा।’ समाजवाद की घेराबंदी है। संसोपा-प्रसोपावाले जनतांत्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसीवाले समाजवादी हैं। क्रांतिकारी समाजवादी हैं। हरेक समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता है - ‘लो, मैं समाजवाद ले आया।’ समाजवाद परेशान है। उधर जनता भी परेशान है। समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है। समाजवाद एक तरफ उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं। ‘खबरदार, उधर से मत जाना!’ एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा हाथ पकड़कर खींचता है। तब बाकी समाजवादी छीना-झपटी करके हाथ छुड़ा देते हैं। लहू-लुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है। इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आंदोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आंदोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुए हैं। यों प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है। मैं एक कल्पना कर रहा हूँ। दिल्ली में फरमान जारी हो जाएगा - ‘समाजवाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है। उसे सब जगह पहुँचाया जाए। उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बंदोबस्त किया जाए। एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा - ‘लो, ये एक और वी.आई.पी. आ रहे हैं। अब इनका इंतजाम करो। नाक में दम है।’ कलेक्टरों को हुक्म चला जाएगा। कलेक्टर एस.डी.ओ. को लिखेगा, एस.डी.ओ. तहसीलदार को। पुलिस-दफ्तरों में फरमान पहुँचेंगे, समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो। दफ्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे - ‘काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज आया था न! जरा निकालो!’ तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे - ‘अरे वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया। कोई लेने नहीं गया स्टेशन। तिवारी बाबू, तुम कागज दबाकर रख लेते हो। बड़ी खराब आदत है तुम्हारी।’ तमाम अफसर लोग चीफ-सेक्रेटरी से कहेंगे - ‘सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इंतजाम नहीं कर सकेंगे। पूरा फोर्स दंगे से निपटने में लगा है।’ मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा - ‘हम समाजवाद की सुरक्षा का इंतजाम करने में असमर्थ हैं। उसका आना अभी मुल्तवी किया जाए।’ जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जाएँ और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ। मुझे खास ऐतराज भी नहीं है। जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दफ्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जाएगी।
13. 'ठिठुरता हुआ गणतंत्र' का पाठ का लिंक
परसाई जी की इस कालजयी रचना का दो साल पहले Firstpost के लिए पाठ किया था. लगा कुछ अलग किया है, सो 'गणतंत्र दिवस' आते ही आपको दिखाने लगता हूँ. लीजिए एक बार फिर…
14 . *2023 के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर - विजय दलाल
मुझे हरीशंकर परसाईं जी का वह "ठिठुरता हुआ गणतंत्र" शीर्षक से व्यंग्य याद आ रहा है।*
*ऑक्सफेम की रिपोर्ट है किसी समाजवादी या वामपंथी ने नहीं कहा कि इस राज में अमीरी और ग़रीबी के बीच खाई किस कदर बढ़ी है।*
*2017 में देश की महज 1 फीसदी आबादी के पास देश की 70 फीसदी दौलत इकट्ठी हुई, जबकि देश की 67 फीसदी आबादी की दौलत में महज 1 फीसदी का इजाफा हुआ।*
*वर्ष 2018 से 2022 के बीच देश में औसतन 70 करोड़पति रोज बनते रहे, भारत में हर अरबपति एक दशक में अपनी दौलत 10 गुना बढ़ा ले रहा है।*
*वहीं कपड़ा उद्योग का उदाहरण लें भारत का एक औसत श्रमिक या कर्मचारी यदि अपने उधोग के उच्च वेतन प्राप्त अधिकारी के बराबर आमदनी चाहे तो इसके लिए उसे 941 साल यानी उसकी पचास पीढ़ियां लग जाएगी।*
*ये सरकार का विकास का गुजराती शायलाक माडल है।*
*इस सरकार को 60 साल में जनता की मेहनत और पैसे से निर्मित सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र को बेच कर पैसा इकट्ठा करना है और निजी क्षेत्र को सौंपना है।*
*सबसे बड़ा देश का श्रमिक वर्ग किसान है 2017 में इस सरकार ने वादा किया था कि किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी।*
*2023 आ गया है क्या हुआ?
क्या हुआ गारंटी तो छोड़ो* एमएसपी अभी भी लागत से दूर है। *किसानों को एमएसपी की गारंटी दे देंगे तो एक तरफ तो 80 करोड़ लोगों को मोदी जी के फोटो की छपी थैली में कम से कम 2024 तक के चुनाव जीतने तक तो अनाज बांटना है तो सरकार को ही सबसे पहले किसानों से महंगा अनाज खरीदना पड़ेगा।*
*और फिर अपने प्रिय कार्पोरेट मित्रों को अपने मुनाफे और बढ़ाने के लिए खरीदने के लिए सस्ते में किसानों की उपज और किसानों के कर्जदार होने पर उनकी जमीनें।*
*बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए स्मार्ट शहर योजनाओं के लिए खेती और गांव छोड़कर आया असंगठित सस्ता प्रवासी मजदूर भी तो चाहिए।*
*80 करोड़ गरीब आबादी का लगभग 75 फीसदी हिस्सा गांवों में रहता है।*
*निजी क्षेत्र आम जनता की मेहनत से कमाए धन की बैसाखियों पर खड़ा किया जा रहा है।*
*सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र केवल सिकोड़ा ही नहीं जा रहा है बल्कि पूंजीपतियों को बेचा जा रहा है। आज देशी हैं कल विदेशी होंगे।*
*इस माध्यम से वंचितों के लिए आरक्षण भी छीना जा रहा है। सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र में स्थाई नौकरियां छीन कर आउट सौर्सिंग के माध्यम से हर क्षेत्र में अस्थाई और ठेकेदारी प्रथा जोरों पर है।*
*पूंजी को मुनाफे की लूट के लिए पूरी छूट और श्रम को भीख या गुलामी।*
आज परसाई जी होते तो जरूर कहते आजादी के 74 साल बाद तो *"गणतंत्र तो और ज्यादा ठिठुर रहा है"।*
*मेहनतकश* संयोजक विजय दलाल
15. संविधान - पाश
संविधान
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे मत पढ़ो
इसके लफ़्ज़ों में मौत की ठण्डक है
और एक-एक पन्ना
ज़िन्दगी के अन्तिम पल जैसा भयानक
यह पुस्तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु
और जब मैं जागा
तो मेरे इन्सान बनने तक
ये पुस्तक मर चुकी थी
अब अगर इस पुस्तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोए हुए पशु ।
16. गणतंत्र के अवसर पर- एम के आज़ाद
गणतंत्र दिवस के अवसर पर
देशी हथियारों का,
गन तंत्र का होता
यह विराट प्रदर्शन।
यह किसका है राष्टीय पर्व?
कौन उत्साहित है इस पर्व में?
मुट्ठीभर लुटेरे पूंजीपतिगण
या गरीबी, भुखमरी से जूझ रहे
विशाल मिहनतकस -जन।
हमे आजाद लोकतंत्र चाहिये,
पूंजी का गुलाम लोकतंत्र नही,
कॉरपोरेट्स का गुलाम लोकतंत्र नही,
कॉरपोरेट्स मुक्त लोकतंत्र,
मजदुरो किसानों का लोकतंत्र।
आज
किसान अन्नदाता है
व्यापारी, कॉर्पोरेट मुनाफाखोर
इस लिये होता यहाँ
शोषण-दमन घनघोर।
जब होगा मजदूर अन्नदाता
मुनाफे पर होगी बंदिश
कोई न होगा भूखा यहाँ
न होगी कोई रंजिश।
दुनिया के मजदुरो, एक हो!
गणतंत्र दिवस पर एक संकलन
अनुक्रमिका
1. आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर - साहिर
2. सभी समरस बनें!- वंदना चौबे
3. भात-भात कह भूख से मरते बच्चों के देश में गणतंत्र दिवस मनाने की सार्थकता? अजय असुर
4. विद्वान अधिवक्ताओं एवं समस्त नागरिकों से अपील-
सूर्यदेव सिंह ‘‘एडवोकेट’’
5. इसे व्यवस्था परिवर्तन की लडाई में बदलना होगा- संदीप कुमार
6. आर्थिक जनतंत्र की स्थापना ही सामाजिक समानता की कुंजी है- व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से प्राप्त ज्ञान
7. भात-भात कह भूख से मरते बच्चों के देश में गणतंत्र दिवस मनाने की सार्थकता? निर्मल कुमार शर्मा
8. तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी? अजय असुर
9. कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है?* आलोक रंजन, आनंद सिंह
10. गणतंत्र दिवस पर "नागार्जुन" की एक कविता
11. लोकतंत्र के संदर्भ में अशोक चक्रधर की कविता
12. ठिठुरता हुआ गणतंत्र -हरिशंकर परसाई
13. 'ठिठुरता हुआ गणतंत्र' का पाठ का लिंक
14. 2023 के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर - विजय दलाल
15. संविधान - पाश
16. गणतंत्र के अवसर पर- एम के आज़ाद
1. आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर
साहिर ने “ छब्बीस, जनवरी “ के नाम से एक नज़्म लिखी थी जो आज भी सही प्रतीत होती है । देश ने बहुत प्रगति कर ली है लेकिन आज भी ग़रीबी , बेरोज़गारी , मज़हब , जाति भेद ज्यों की त्यों बनी हुई है।
नज़्म पेश है -
आओ कि आज ग़ौर करें इस सवाल पर
देखे थे हम ने जो वो हसीं ख़्वाब क्या हुए
दौलत बढ़ी तो मुल्क में अफ़्लास क्यूँ बढ़ा
ख़ुश-हाली-ए-अवाम के अस्बाब क्या हुए
जो अपने साथ साथ चले कू-ए-दार तक
वो दोस्त वो रफ़ीक़ वो अहबाब क्या हुए
क्या मोल लग रहा है शहीदों के ख़ून का
मरते थे जिन पे हम वो सज़ा-याब क्या हुए
बे-कस बरहनगी को कफ़न तक नहीं नसीब
वो व'अदा-हा-ए-अतलस-ओ-किम-ख़्वाब क्या हुए
जम्हूरियत-नवाज़ बशर-दोस्त अम्न-ख़्वाह
ख़ुद को जो ख़ुद दिए थे वो अलक़ाब क्या हुए
मज़हब का रोग आज भी क्यूँ ला-इलाज है
वो नुस्ख़ा-हा-ए-नादिर-ओ-नायाब क्या हुए
हर कूचा शोला-ज़ार है हर शहर क़त्ल-गाह
यक-जहती-ए-हयात के आदाब क्या हुए
सहरा-ए-तीरगी में भटकती है ज़िंदगी
उभरे थे जो उफ़ुक़ पे वो महताब क्या हुए
मुजरिम हूँ मैं अगर तो गुनहगार तुम भी हो
ऐ रहबरना-ए-क़ौम ख़ता-कार तुम भी
——साहिर लुधियानवी
( गणतंत्र दिवस पर विशेष प्रस्तुति )
2. सभी समरस बनें!- वंदना चौबे
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【आज के दिन अपनी ही एक कविता】
सभी समरस बनें!
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उनके बीच बस कुर्सी भर की दूरी थी
कुर्सी के उधर पढ़ाने वाला
और कुर्सी के इधर पढ़ने वाले
पढ़ाने वाले पढ़ाते रहे पढ़ने वाले पढ़ते रहे-
'भारतीय लोकतंत्र'
एक लोकतांत्रिक संस्थान के
कार्यालय में काम करने वाले काम करते-करते
उलझ जाते एक दूसरे से कि बाक़ी जो करिए साहब
लेकिन सब कुछ इन राइटिंग दीजिए
वहीं पर्यावरण की चिंता में कमज़ोर होती
नई शिक्षा नीति कागज़ों पर लिख-लिख कर
पेपरलेस काम करने के आदेश देती थी
झाड़ू लगाने वाला बरामदों में झाड़ू लगाता रहा
मेहतरानी समय पर कभी भी
बाथरूम साफ़ न रखने के लिए डाँट खाती रही
चपरासी यहाँ-वहां दौड़ दौड़कर चाय-पानी पहुंचाता रहा
माली ताउम्र बगीचे के बीच पानी का पाइप लिए ही मिला
इतना सुगठित कि सब कुछ व्यवस्थित रहा
तब सेवा-निवृत्ति के लिए विदाई समारोह था
क्या अध्यापक-अधिकारी क्या मातहत
क्या क्लर्क क्या मेहतर
सभी अपने-अपने काम के अनुरूप श्रेणीबद्ध ढंग से बैठे थे
सबको हार-उपहार से नवाज़ा गया
इतना बड़ा पद और ऐसा सादा जीवन!
ऐसे ही एक पदाधिकारी ने देश के विकास पर सस्वर सुंदर भाषण दिया
और सभी भावुक हो गए
यह लोकतंत्र ही था कि चपरासी तक ने अपनी बात रखी
जो चुटकुले में रुपांतरित हो गई
और भावुक मन थोड़ा रंजक हुआ
वैसे वह था भी लापरवाह और कुछ बेवकूफ़ किस्म का
हुआ यह भी कि अपनी ही सेवा-निवृत्ति के
उत्सवी माहौल के दिन भी जाने कौन धुन में
मेहतरानी महारानी सुबह ही अपने काम पर आ गईं
किसी तरह उन्हें नियत स्थान पर बिठाया गया
हार-उपहार दिया गया
और अब तक के सेवा-काल पर
अपने अनुभव साझा करने के लिए कहा गया-
इतने समान-सम्मान भाव से दबती हुई
उसने मुस्कुरा कर कहा-
'हम्मैं ना सुझायल कि आज से हमके काम न करै के हव!
हम्मैं लगल कि इ सब नक्सा-पालिस एक ओर बाकिर ई कुल कमवा तो हमके करहीं क होइ!!
के करी?'
[मुझे पता ही नहीं चला कि आज से मुझे काम नहीं करना है। मुझे लगा यह सब साज-सजावट एक ओर लेकिन मुझे यह सब काम तो करना ही पड़ेगा!!
कौन करेगा?]
हमारे समय का मुहावरा था लोकतंत्र में सभी बराबर हैं
अब कहीं कोई जात-पात नहीं है
आंबेडकर ने जाति पर नहीं समरसता पर काम किया था
इसलिए अब देश आज़ाद है
देश मे लोकतंत्र है
और अब कोई जातिवाद न करे
जाति आधारित मतदान न करे
सभी समरस बनें!
धर्म की जय हो!
अधर्म का नाश हो!!
वंदना चौबे 2016
xxxxxxxx
लोकतंत्र संविधान और समरसता हमारे समय का सबसे बड़ा मजाक है!
क्या वर्गों में बंटे समाज में सबों के लिए लोकतंत्र संभव है?
क्या वर्गों में बंटे समाज में समरसता संभव है?
नरेंद्र कुमार की टिप्पणी
3 *भात-भात कह भूख से मरते बच्चों के देश में गणतंत्र दिवस मनाने की सार्थकता?*
73 वर्ष पहले 26 जनवरी 1950 के दिन भारत में भारत का संविधान लागू हुआ। जिसके उपलक्ष्य में हर वर्ष 26 जनवरी के दिन शासक वर्ग गणतंत्र दिवस के रूप में मनाता है और जनता पर इसे राष्ट्रीय त्यौहार के रूप में थोप देता है।
अभी तक यही पढ़ाया और बताया गया है कि 'गणतंत्र दिवस' जनता के लिये है। गणतंत्र का मतलब जनता का तंत्र! पर इस गणतंत्र में मेहनतकश जनता की क्या स्थिति है किसी से छिपा नहीं। गण मतलब जन समूह यानी जनता और तंत्र मतलब शासन व्यवस्था यानी जो शासन जनता द्वारा जनता के लिए हो। अब इसको इस तथाकथित गणतंत्र को इस हिसाब से कसेंगे तो पाएंगे कि मुट्ठीभर लोगों द्वारा मुट्ठीभर भर लोगों के लिये, मुट्ठीभर लोगों का शासन एकदम सटीक बैठता है और यही भारत की मौजूदा गणतंत्र में सटीक बैठता भी है।
1947 के बाद भारत में ब्रिटिश साम्राज्यवाद का प्रभुत्व खत्म हो गया मगर अमेरिकी साम्राज्य के नेतृत्व में ब्रिटेन, जर्मनी, जापान, फ्रांस, इटली, कई साम्राज्यवादी देश हमारे भारत देश के ऊपर कई असमान समझौते थोपकर हमारे देश को अप्रत्यक्ष तौर पर गुलाम बनाए हुए हैं। भाजपा और कांग्रेस की सरकारों द्वारा विदेशी लुटेरों के साथ किये गये असमान समझौतों के अधीन रहने से हमारा देश कई साम्राज्यवादी देशों का अर्धउपनिवेश बना हुआ है। लेमोआ, कामकासा, सिस्मोआ, बेका जैसे सैकड़ों असमान समझौते तथा भारतीय संविधान का अनुच्छेद 363 इसका जीता जागता प्रमाण हैं। इसको हम यूं समझ सकते हैं कि 1947 में आजादी के बाद ब्रिटिश साम्राज्यवादियों के गोरों की गुलामी से मुक्ति तो मिल गयी पर उसके बाद उसी ब्रिटिश साम्राज्यवाद के काले दलालों के हाथों में सत्ता आ गयी। जिससे यह गणतंत्र भी चन्द लोगों और परिवार में सिमट कर रह गया नतीजा असमानता की गहरी खाई बढ़ती गयी और जिससे आज आजादी के 75 वर्ष और गणतंत्र के 73 वर्ष बाद, एक तरफ भूख से बिलबिलाते हुए लोग सन्तुलित आहार तो बहुत दूर की बात पेट भरने के लिये 'भात-भात की रट लगाए हुए' भूख से दम तोड़ रहे हैं। किसान अपनी फसलों की लाभकारी मूल्य तो दूर की बात न्यूनतम समर्थन मूल्य के लिये दिल्ली की सड़कों पर 380 दिन बैठने को मजबूर हुए और सरकार के आश्वासन के बाद सड़क से वापस घर गये पर अपने वादे के एक साल बीतने पर भी शासक वर्ग किसानों के फसल का न्यूनतम समर्थन मूल्य की गारंटी नहीं दे पा रहा है। जिससे आज भी किसान आत्महत्या करने को मजबूर हैं।
यह गणतंत्र देश के लगभग 50 करोड़ किसानों को उनके द्वारा उत्पादित फसल को उचित मूल्य न देकर खेती घाटे का सौदा बनाये हुए है। इससे भी ज्यादा निर्दयता, किसानों द्वारा उत्पादित 40 प्रतिशत खाद्यान्न को जानबूझकर उचित भंडारण सुनिश्चित न कर, प्रत्येक वर्ष अन्न सड़ाकर, मुट्ठीभर पूंजीपतियों को शराब बनाने के लिये कूड़े के भाव दे दे रहा है और दूसरी तरफ अन्न के अभाव में इसी देश के तकरीबन 30 करोड़ लोगों को रात में भूखे पेट सोने को मजबूर कर रही है, दूसरी तरफ चन्द पूंजीपतियों की प्रतिदिन की आमदनी करोड़ों में है। एक पूँजीपति अडानी 2021 के बाद की आमदनी 50% से ज्यादा के रेशियो से लगातार ग्रोथ कर रही है। वंही अम्बानी एक घण्टे में 1.4 करोड़ रूपया कमाता है। देश की मेहनतकश जनता काम करते-करते एक दिन नहीं पूरी जिंदगी बीत जाती है तो भी 1.4 करोड़ रूपया नहीं कमा पाता।
गणतंत्र के 73 वर्षों के बाद जिस देश में मात्र 1 प्रतिशत लोगों के पास समाज की 73 प्रतिशत से भी अधिक सम्पदा पर कब्जा हो, जहाँ हाड़ कांपती ठंड में भी दिन-रात काम करने के बावजूद 22-25 करोड़ लोग भूखे पेट लेकर फुटपाथ पर सोने को मजबूर हों, जहाँ अपने अधिकार के लिए आवाज उठाने वालों को लाठी, डंडो और गोलियों से भी कुचल कर उनकी आवाज को दफन कर दिया जाता है। जहाँ सच बात लिख देने और कह देने से यू ए पी ए जैसा काला कानून थोपकर जेल के अन्दर ठूंस दिया जाता है और अभिव्यक्ति की आजादी को पैरों तले कुचल दिया जाता है। जहाँ गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के दिन देश के हर शहर में बच्चों द्वारा अपना पेट भरने के लिए देश का झंडा बेचना बहुत ही आम बात हो। जहाँ इस गणतंत्र की खुशी मना रहे कुछ लोगों द्वारा आपस में मिठाई बांटी जा रही हो और एक गरीब उस गणतंत्र की मिठाई को निहारता हुआ बेबस नजरों से अपनी इच्छा को मार देता है। यदि कोई गरीब इस गणतंत्र की मिठाई मांग ले तो उसकी हालत देखकर मना हो जाता हो और यदि कोई दे भी दे तो उसके पीछे और कोई आ जाय इस गणतंत्र के खुशियों की मिठाई मांगने तो उसको दुत्कार दिया जाता है। ये कैसा गणतंत्र है? और किसका गणतंत्र है? जहाँ खुशियां मानने के लिये मुँह भी मीठा नहीं हो पाता। जहाँ शासक वर्ग अपनी खुशियों को सड़क पर झांकी के जरिये प्रदर्शन करता है और उस प्रदर्शन में आम नागरिक शरीक होने के लिये भी यदि ठीक-ठाक कपड़े नहीं है तो घुसने भी नहीं दिया जाता है। तो फिर उन खुशियों में शरीक होने के लिये अच्छे कपड़े कैसे उपलब्ध होंगे? जब उसके पास उसकी योग्यता के अनुसार रोजगार उपलब्ध होगा और काम के अनुसार दाम भी होना चहिए। इस गणतंत्र में तो यह सम्भव नहीं है। क्योंकि इस गणतंत्र में सरकार की कोई जिम्मेदारी नहीं। सबको आत्मनिर्भरता पर छोड़ दिया जा रहा है। ज्यादा नहीं 3-4 वर्षों में ही माँ-बाप सरकार की तरह अपने बच्चे को सड़क पर छोड़ देंगे आत्मनिर्भर बनने के लिये। क्या यही गणतंत्र का स्वरूप होता है।
यह गणतंत्र मेहनतकश जनता का नहीं है। पर सभी मेहनतकश जनता के दिमाग में अपनी किताबों, टेलीविजन के पिक्चरों और धारावाहिकों, सोशल मीडिया, प्रिंट मीडिया, इलेक्ट्रानिक मीडिया और अपने प्रचार तंत्र के जरिये ढूंस दे रहा है। और हम मेहनतकश जनता इस गणतंत्र को अपना मान इस गणतंत्र की खुशियों में शामिल तो होना चाहते हैं पर गणतंत्र की खुशियाँ चन्द लोगों में सिमट के रह जाती है। निश्चित ही ये आजादी झूठी है, ये गणतंत्र झूठा है क्योंकि आज भी देश की जनता भूखी है, और उसकी आवश्कतायें अधूरी हैं। और जब तक हमारी आवश्यकताएं अधूरी रहेंगी तब तक इस गणतंत्र के कोई मायने नहीं।
देश की बहुसंख्यक जनता पहले भी भूखी नंगी थी और आज भी है। कोई विशेष अन्तर नहीं आया है जनता के जीवन में। जैसे जब पानी बरसता है तो अमीर और गरीब सब पर कुछ ना कुछ बारिश के बूंदें पड़ती हैं इसी प्रकार जब इन मुट्ठीभर लोगों के लिये विकास होता है तो कुछ बूंदें भारत के बहुसंख्यक जनता पर भी थोड़ा सा पड़ जाता है और इस पूंजीवादी लोकतंत्र के दलालों ने इसको बहुसंख्यक जनता का विकास बता भारत के पूंजीवादी लोकतंत्र का बखान करना शुरू कर दिया और हमने भी मान लिया कि ये उन मुट्ठीभर लोगों के विकास के छींटे नहीं हम बहुसंख्यक जनता पर विकास की बारिश हुई है। यदि वाकई देश की बहुसंख्यक जनता के लिये ही विकास हुआ है, तो गणतंत्र के 73 सालों में और देश के आजादी के 75 सालों बाद भी देश के 80 करोड़ लोग 5 किलो राशन पर निर्भर क्यूँ हैं? यदि ये 5 किलो राशन ना मिले तो एक वक्त का भरपेट खाना भी नसीब क्यूँ नहीं? तकरीबन 25 करोड़ लोगों के ऊपर एक अदद छत तक नसीब क्यूँ नहीं? और हाँ ये आंकड़े मेरे नहीं सरकार के हैं। इन भूखी-नंगी जनता के लिये सन्तुलित भोजन के क्या मायने? पेट भर जाये यही बहुत है। मुझे तो लगता है कि देश की 90% जनता सन्तुलित भोजन नहीं ले पाती है? कईयों को तो मालूम ही नहीं कि सन्तुलित भोजन क्या होता है? सन्तुलित भोजन में क्या-क्या शामिल होता है? इन्हें तो सिर्फ पेट भरने से मतलब होता है? तो जिसकी आवश्यकता अधूरी हो तो वो आजाद तो नहीं है। तो आखिर ये गणतंत्र दिवस का जश्न किसके लिये है?
इस पूंजीवादी गणतंत्र में न्यायालय, सेना, पुलिस और अन्य सभी सरकारी मशीनरी का पूरा तंत्र धनी और ताकतवर लोगों के कुछ समूहों की सुरक्षा के लिए दिन-रात काम करती रहतीं हैं। सारा का सारा तंत्र मुट्ठीभर लोगों की सुरक्षा में नतमस्तक खड़ी रहती है। गणतंत्र के 73 वर्षों के बाद भी जो दोहरी व्यवस्था अंग्रेजों के समय कायम थी, वही व्यवस्था आज भी कायम है। न्यायालय में न्याय नहीं फैसला होता है। इस न्यायालय में दोहरी व्यवस्था है अमीरों के लिये अलग और गरीबों के लिये अलग। अंग्रेजों के जमाने की ही तरह अमीरों के पक्ष में फैसला। न्यायालय एक कमजोर, निर्बल और निर्धन व्यक्ति को फाँसी पर चढ़ा देता है और अमीर शान से छूट जाता है। क्या केवल गरीब और निर्धन व्यक्ति ही अपराधिक कृत्य करते हैं? एक धनी व्यक्ति गंभीर से गंभीरतम् अपराध करके अपने पैसे के बलपर मंहगे से मंहगे वकील करके अपने किए गंभीरतम् अपराध के कुकृत्य से भी साफ बच निकलता है। जबकि एक गरीब बेरोजगारी, महंगाई, भ्रष्टाचार… से त्रस्त व्यक्ति, जिसके सर पर एक अदद छत तो दूर की बात पेट भरने के लिये दो जून की रोटी भी मयस्सर नहीं है, वह मंहगा वकील कैसे कर सकता है? उसके लिए मंहगा वकील तो दूर की बात एक साधारण वकील भी करना संभव नहीं है। कहने को जनता के लिये निचली अदालत के बाद हाईकोर्ट फिर सुप्रीम कोर्ट है तो कितनी आम जनता सुप्रीम कोर्ट पहुँच पाती है? सुप्रीम कोर्ट तो दूर की बात हाई कोर्ट तक ही सब नहीं पहुँच पाते क्योंकि वकीलों की फीस हजारों/लाखों में। अब जिस देश की 80 करोड़ जनता 5 किलो अनाज पर निर्भर हो, ऐसा माननीय प्रधानमंत्री मोदी जी बता चुके हैं, वह लाखों की फीस कैसे वहन कर सकती है तो यह हाई कोर्ट और सुप्रीम कोर्ट किसके लिये? इसी प्रकार पुलिस और सेना का भी दुरूपयोग हमेशा धनी व ताकतवर लोगों के पक्ष में और गरीबों की हमेशा मुखालफत और उनके क्रूर दमन के लिए ही उनका हमेशा से ही इस्तेमाल होता आया है।
बेरोजगारी से त्रस्त युवाओं के रोजगार माँगने पर सेना/पुलिस के जरिये उनको लाठियों से पीटा जा रहा है। इन बेरोजगार युवावों का क्या दोष? क्या ये कुछ मुफ्त की चीजों की डिमांड कर रहे हैं? ये सिर्फ अपने हक-हूकूक की ही तो बात कर रहें हैं। तो ये कैसा गणतंत्र है, जहां जनता अपने हक/अधिकार के लिए आवाज तक ना उठा सके?
देश 74वां गणतंत्र दिवस मना रहा है। हजारों-लाखों कुर्बानियां देने के बाद ये तथाकथित आजादी मिली है। तथाकथित इसलिए क्योंकि वास्तविक रूप में हम आज भी गुलाम हैं। गुलामी का मतलब ये नहीं कि हमारे हाथ-पांव में जंजीरे बंधी हों तभी हम गुलाम हो सकते हैं। ये वो जमाना नहीं रहा, आज समय बदल गया है! इतिहास अपने को दोहराता जरूर है पर कभी भी पीछे की ओर लौट कर नहीं जाता। गुलामी से पहले हमें आजादी को समझना पड़ेगा। 'मानवीय के आवश्यकताओ की पूर्ति ही आजादी है।' यदि हमारी जरूरतें पूरी नहीं होती तो हम आजाद नहीं और इस आजादी के कोई मायने नहीं है। ये आजादी किसी काम की नहीं बस दिल बहलाने के लिए गालिब ये खयाल अच्छा है। इसका मतलब हम भूख से तब तक आजाद नहीं हो सकते जब तक कि हमें संतुलित भोजन न मिले। हम बीमारी से तब तक आजाद नहीं हो सकते जबतक कि हमें समुचित इलाज न मिले। हम नंगेपन से तब तक आजाद नहीं हो सकते जब तक कि हमें वस्त्र न मिले। हम मकान की समस्या से तब तक आजाद नहीं हो सकते जबतक कि हमें स्वास्थ्यकर मकान न मिले। हम अशिक्षा और अन्धविस्वास से तब तक आजाद नहीं हो सकते जब तक कि हमें आधुनिक वैज्ञानिक शिक्षा न मिले। हम तब तक आजाद नहीं हैं जब तक अपने और अपने परिवार के जीवकोपार्जन के लिये एक अदद योग्यता अनुसार रोजगार ना मिले। ये आजादी किसी काम की नहीं, बस दिल बहलाने के लिए गालिब ये खयाल अच्छा है।
ये आजादी यूं है कि आपके हाथ-पैर में बंधी गुलामी की बेड़िया खोल दी जाए और आपके चारों तरफ गहरी खाई खोद दी जाय यानी आपको चलने के लिए एक इंच जमीन ना दी जाए और आपसे कह दिया जाए कि जाओ अब आपको इन गुलामी के जंजीरों से मुक्ति दी जाती है, जाओ आप आजाद हो। चिड़िया के उसके पिंजरे से निकालकर उसके पंख कुतर दो और कहो जाओ उड़ने के लिए ये सारा आसमां तुम्हारा है जहां मर्जी हो उड़ो, तुम आजाद हो। तो इसी तरह की आजादी है।
कहते हैं हम आजाद हैं, हर चीज की आजादी है! जाओ हवाई जहाज खरीदो, महंगी से महंगी कार खरीदो, बड़ी से बड़ी फैक्ट्री खोलो, शापिंग माल खोलो… आप आजाद हैं, देश के संविधान ने यह आजादी दिया है! गजब की आजादी दिया है, क्या महंगी से महंगी गाड़ी, हवाईजहाज… गुलाम भारत में अंग्रेजों के समय में नहीं खरीद सकते थे? क्या तब भी कोई मनाही थी? इसी प्रकार बड़ी-बड़ी फैक्ट्री और शापिंग माल खोलने में भी कोई पाबन्दी नहीं थी, यदि नहीं तो फिर नया क्या दिया इस संविधान ने? क्या देश और राज्य की सरकारों ने हवाई जहाज, महंगी गाड़ी… खरीदने और फैक्ट्री, शापिंग माल… खोलने के लिए आवश्यक धन का इंतजाम किया? खैर ये सब बहुत दूर की बात है आपकी बेसिक (बुनियादी) जरूरतों को पूरा करने के लिए कोई इंतजाम किया? नहीं ना! तो फिर इस स्वंत्रता के क्या मायने? अब कुछ तथाकथित बुद्धिमान लोग कुतर्क करते हुए कहेंगे कि सरकार ने सभी के लिए ठेका थोड़े ही ले रखा है, सरकार क्यूँ करे? आप भी तो कुछ करो। या फिर बैठे-बैठे यूं ही सब मुफ्त में चाहते हो? तो महोदय मुफ्त में कोई कुछ भी नहीं चाहता पर सरकार हमसे बेशुमार टैक्स लेती है तो सरकार का दायित्व बनता है कि सबके रोजगार की व्यवस्था करे! जब जनता को ही आत्म निर्भर बन सब व्यवस्था खुद करना है तो फिर टैक्स किस लिये? चुनाव के वक्त मुफ्त वायदे क्यूँ किये जाते हैं? मुफ्त अनाज, मुफ्त सिलेण्डर, मुफ्त साइकल, मुफ्त भोजन, मुफ्त लैपटाप… की जगह रोजगार क्यूँ नहीं दिया जाता है?
क्या सिर्फ फावड़ा उठाकर गड्ढा खोद देने से काम चल जाएगा? नहीं ना! जबतक कोई गड्ढा खुदवाने को तैयार नहीं होगा तो हमारे गड्ढा खोद देने भर से पैसा नहीं मिलेगा! जनता अपनी श्रम शक्ति बेचने को तैयार है पर श्रम शक्ति खरीदने वाला भी तो चाहिए? अब जनता को टैक्स, मुनाफा, सूद, घूसखोरी, नशाखोरी, जमाखोरी, कालाबाजारी के जरिये निचोड़ लेना और जनता को जनता के भरोसे जनता के हाल पर छोड़ देना तो ये कौन सा गणतंत्र है? ये कौन सी आजादी है? ऐसे हालात तो गुलाम भारत में अंग्रेजों के समय में भी थे और यदि वही हालात आज भी हैं तो इस आजादी और इस संविधान और गणतंत्र के क्या मायने?
कुछ लोग नासमझी में कहते हो- 'कोई व्यक्ति 10-12 बच्चे पैदा कर रहा है इसमे सरकार क्या करे? निश्चित ही उस माँ-बाप का भी दायित्व बनता है कि उसे सन्तुलित आहार, अच्छी शिक्षा, तन ढकने के लिए अच्छे कपड़े, रहने के लिए उसके ऊपर एक छत दे, पैदा करके जानवरों की तरह उनके हाल पर आत्मनिर्भर होने के लिए छोड़ देना उचित नहीं।' मगर ये तो बताओ कि मां-बाप अपने बच्चों से टैक्स, मुनाफा, सूद… नहीं लेते, अपना पेट काट कर बच्चों को पालते हैं, फिर भी तुम उन पर जिम्मेदारी का तोहमत थोप रहे हो, हम शासक वर्ग और उनके दलालों से पूछते हैं कि तुम सैकड़ों तरीकों से जनता को निचोड़ रहे हो तो तुम्हारी सरकारों का दायित्व नहीं बनता? उन बच्चों के माँ-बाप के लिए एक अच्छी सी जिंदगी गुजारने और आने वाली पीढ़ी की जरुरतों को पूरा करने के लिए सबको रोजगार प्रदान करने की जिम्मेदारी तुम्हारे सरकार की नहीं हैं क्या?
भारतीय संविधान के अनुच्छेद 290 A कहता है कि केरल राज्य प्रत्येक वर्ष 46 लाख 50 हजार और तमिलनाडु राज्य प्रतिवर्ष 13 लाख 50 हजार हिंदु मन्दिरों के लिए देवस्थानम निधि को दान देने के लिए बाध्य है यानी गारंटी दी गयी है इतना पैसा देना ही देना है पर संविधान के नीति निर्देशक तत्व अनुच्छेद 36 से 51 तक मौलिक अधिकारों के मामले में कोई गारण्टी नहीं है। इसके लिये राज्य को बाध्य नहीं किया गया है, राज्य चाहे तो मौलिक अधिकार दे, चाहे तो ना दे और तो और भारतीय संविधान का अनुच्छेद 37 इसको इसको जस्टीफाई कर रहा है कि यदि राज्य सरकार ना करे तो आप सरकार के खिलाफ न्यायालय नहीं जा सकते हैं। यहां जनपक्षधर प्रावधानों को लागू कराने की गारण्टी क्यूँ नहीं दिया गया? न्यायालय जाने से क्यूँ रोका जा रहा है? मन्दिरों के लिए गारंटी दी गयी है तो भारत के नागरिकों के लिए कोई गारंटी क्यों नहीं? भारतीय संविधान में दिये गए मौलिक अधिकार पर अनुच्छेद 290 A की तरह गारण्टी क्यूँ नहीं? क्या देश/राज्य की प्राथमिकता में मंदिर पहले और देश के नागरिक बाद में आते हैं?
लोग लफ्फाजी करते हुए तर्क देते हैं 'आज जो ये पटर-पटर बोल रहे हो ये हक संविधान ने दिया है।' यानी अभिव्यक्त की आजादी! अनुच्छेद 19 A के तहत। तो क्या अंग्रेजों के समय में भारतीय गूंगे थे? लोग बोलते तो तब भी थे ना! हाँ तब अंग्रेजी हुकुमत के खिलाफ बोलने पर जनता को प्रताड़ित किया जाता और जेल में डाल दिया जाता। तो आज भी वही किया जा रहा है और आज तो यह संविधान के दायरे में रहकर किया जा रहा है बाकायदा कानून बनाकर क्योंकि संविधान का अनुच्छेद 19 A बोलने की स्वतंत्रता तो देता है पर वहीं 19 B में कंडीशन लगाकर बोलने की आजादी छीन लेता है। और ये विश्व का एक मात्र संविधान है जहाँ बोलने पर पाबन्दी लगाता है। और ऐसे सैकड़ों नहीं हजारों उदाहरण मौजूद हैं कि सरकार के खिलाफ कुछ भी बोलने पर जेल में डाल दिया गया है। चाहे वह भाजपा की सरकार हो, कांग्रेस की सरकार हो, सपा, बसपा, राजद, आप, शिवसेना… किसी भी पार्टी की सरकार हो कोई फर्क नहीं पड़ता सभी जनता का दमन करते हैं। ये कैसी अभिव्यक्ति की आजादी है? और वो भी दोहरी आजादी, किसी के लिए कुछ और किसी के लिए कुछ! दिल्ली में CAA-NRC के प्रोटेस्ट के दौरान हुए दंगों के दौरान कपिल मिश्रा खुलेआम बड़े पुलिस अधिकारियों के सामने दंगा भड़काने की धमकी देता है और बोलता है गोली मारो सालों को… तो यहां अभिव्यक्त की आजादी है और अगर कोई सच्चाई सामने रख दे तो जेल! तो ये कैसी अभिव्यक्ति की आजादी है? आज सबसे खतरनाक बात यह है की जो भी लोग सत्ता और कारपोरेट के अन्याय, शोषण के विरुद्ध लिख, बोल कर आवाज उठा रहे हैं उन्हें नक्सली, माओवादी, देशद्रोही, मुल्ले, पाकिस्तानी, चीन द्वारा फन्डेड… कह कर या तो हत्या की जा रही या फिर जेलों मे डाला जा रहा है।
इस देश को आजाद हुए 75 साल हो गए हैं और इस देश में संविधान लागू हुए 73 साल हो गए और वोट देते हुए 70 साल तो इस 73 साल के गणतंत्र में क्या बदला? इन 75 सालों में हर 5 सालों में सरकारें आती और जाती रहीं हैं और देश की मेहनतकश जनता सिर्फ वोट देकर मुट्ठीभर लोगों के जीवन में बदलाव लायी है और आजादी से पहले भी देश की बहुसंख्यक जनता भूखी और नंगी थी और आज भी है। बस इसी आस में वोट देती आयी है कि इस बार वह जिसे चुन कर भेजेंगे वो इन 5 सालों में हमारा उद्धार जरूर करेंगे और इसी उम्मीद में आजादी से लेकर अब तक आने वाला 5 साल इन्तजार करते हैं और करते रहेंगे क्योंकि ये नकली गणतंत्र है।
शिक्षा के नाम पर स्कूलों का निजीकरण, बाजरीकरण किया जा रहा, जिसके पास जितना पैसा होगा उतनी अच्छी उसे शिक्षा, भोजन, स्वास्थ्य… मिलेगा। यदि आपके पास पैसा नहीं तो आपके बच्चों को अच्छी शिक्षा, भोजन, स्वास्थ्य… नहीं मिलेगा। आज स्थिति ऐसी है की देश के अधिकतर नौजवान बेरोजगार घूम रहे है नौकरियां खत्म हो रही… यदि कहीं से मित्रों, नाते-रिश्तेदारों, महाजनों, सूदखोरों, बैंकों… से कर्जा लेकर अच्छी शिक्षा ली फिर भी गारंटी नहीं कि आपको आपकी योग्यता के अनुसार रोजगार मिल जाए तो ऐसी आजादी के क्या मायने? आपके पास पैसा है तो अच्छा इलाज और यदि नहीं तो मर जाओ, आपके पास पैसा है तो भोजन नहीं तो भूखे मर जाओ…
ग्लोबल हंगर इंडेक्स-2021 के अनुसार 116 देशों भुखमरी देशों की सूची में भारत का 101 पायदान पर है, नेपाल, पाकिस्तान, बांग्लादेश से भी पीछे। वर्ल्ड हैपीनेस इंडेक्स-2022 में 146 देशों की लिस्ट में 136 रैंक पर है। अंतरराष्ट्रीय एजेंसी OXFAM के अनुसार भारत में नीचे की 50% जनसंख्या के पास जितनी सम्पत्ति है उससे ज्यादा संपत्ति भारत के सिर्फ 9 अमीरों के पास इकट्ठा हो गई है। इन आंकड़ों को आप गौर से देखिये कि अरबपतियों की संख्या में जिस भारत का नम्बर तीसरे स्थान पर है, उसी भारत में दुनिया की सबसे गरीब आबादी निवास करती है, जिनके पास शिक्षा, स्वास्थ्य, रोटी, रोजगार, आवास जैसी मूलभूत सुविधाएं भी उपलब्ध नहीं है। तो इससे साफ नजर आ रहा है कि यह गणतंत्र किसके लिये है। मेहनतकश जनता के लिये या मुट्ठीभर लोगों के लिये? अरबपतियों की संख्या बढ़ाने वाली दुर्नीति और उस दुर्नीति पर स्वयं अपनी पीठ थपथपा लेने मात्र से देश के लोग खुशहाल कैसे हो जायेंगे?
देश में अरबपतियों की संख्या लगातार बढ़ती जा रही है। प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन कहते हैं कि एक करोड़पति बनने मे कई हजार लोगों को गरीब होना पड़ता है… अब किसी के दरवाजे पर गड्ढा खुदेगा तभी तो कहीं मिट्टी का टीला बन पाएगा। निश्चित ही इस व्यवस्था में गरीब, गरीब होता जायगा तथा अमीर और अधिक अमीर। पूरे देश की जनता एक तरफ भूख, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, कुपोषण आदि गंभीरतम् और मूलभूत समस्याओं से त्रस्त है और दूसरी तरफ दिल्ली के बोट क्लब पर कुछ रईसों के समूह और उनके दलाल सत्ता के कर्णधारों के रंगारंग गणतंत्र दिवस मना लेने मात्र से यह देश कैसे गणतांत्रिक और खुशहाल देश बन पाएगा?
आज यह बुनियादी सवाल उठाये जाने की जरूरत है कि हम जिस सम्प्रभु, समाजवादी लोकतान्त्रिक गणराज्य में जी रहे हैं, वह वास्तव में कितना सम्प्रभु है, कितना समाजवादी है और कितना लोकतांत्रिक है? पिछले पचहत्तर सालों में आम भारतीय नागरिक को कितने और कौन से लोकतांत्रिक हक हासिल हुए हैं? और यहाँ देखते हुए इस बात का ध्यान रखना होगा कि दिखने वाला नहीं मिलने वाले अधिकार क्या हैं? क्योंकि हाथी के दांत खाने के और होते हैं दिखाने के और। हमारा गणतंत्र आम जनता को किस हद तक नागरिक और लोकतांत्रिक अधिकार देता है और किस हद तक, किन रूपों में उनकी हिफाजत की गारण्टी देता है? संविधान में उल्लिखित मूलभूत अधिकार अमल में किस हद तक प्रभावी हैं? संविधान में उल्लिखित नीति-निर्देशक सिध्दान्तों से राज्य क्या वास्तव में निर्देशित होता है?
गणतंत्र दिवस होता है यह दिखाने के लिए कि राजसत्ता के पास जनता की आवाज कुचलने के लिए कितनी दमनकारी सैन्य ताकत है। जनता का काम बस इतना ही है कि उस ताकत को देखे और 'गणतंत्र' के डर से अपना मुँह बंद रखे। शासक वर्ग द्वारा प्रायोजित सैन्य ताक़त के अश्लील प्रदर्शन में शामिल होने बजाय बेहतर यह होगा कि हम इस तथाकथित गणतंत्र और उसकी पवित्र पुस्तक संविधान के निर्माण की प्रक्रिया को समझें और इन विषयों पर चर्चा आयोजित करनी चहिए और इन चर्चों में शामिल होना चहिए और आज वह समय आ गया है कि इस गणतंत्र पर पुनर्विचार करें।
इस गणतंत्र दिवस के इस मौके पर अवतार सिंह पाश की चन्द पंक्तियाँ प्रासंगिक हैं -
"संविधान
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे मत पढ़ो
इसके लफ़्ज़ों में मौत की ठण्डक है
और एक-एक पन्ना
ज़िन्दगी के अन्तिम पल जैसा भयानक
यह पुस्तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु
और जब मैं जागा
तो मेरे इन्सान बनने तक
ये पुस्तक मर चुकी थी
अब अगर इस पुस्तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोए हुए पशु"
*अजय असुर*
*यह लेख नया अभियान मासिक पत्रिका के जनवरी 2023 अंक से लिया गया है*
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4. विद्वान अधिवक्ताओं एवं समस्त नागरिकों से अपील-
भारत 23 जून 1757 को सामन्ती शासक वर्गों की फूट गद्दारी, और 20 लाख रूपये की रिश्वत खोरी के कारण लार्डक्लाइव की 500 बन्दूक धारी सेना से प्लासी के मैदान में बिना युद्ध किये आधे घंटे में हार गयी और भारत की 18 हजार सेना खड़ी की खड़ी रह गयी। क्योंकि सेनापति मीरजाफर, जगतसेठ, अमीरचन्द्र और नन्दगोपाल जैसे गद्दार अंग्रेजों से मिल गये थे इस कारण भारत 190 वर्षों तक अंग्रेजों का गुलाम बना रहा।
हम भारत वासियों के दो प्रमुख राष्ट्रीय पर्व है। एक 15 अगस्त 1947 जिसे स्वतन्त्रता दिवस कहा जाता है, यह असल में सत्ता हस्तान्तरण दिवस है के साथ-साथ भारत का विभाजन दिवस भी है। दूसरा 26 जनवरी 1950 जिसे गणतंत्र दिवस कहा जाता है। यह वास्तव में संविधान दिवस है।
1857 भारत के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम से लेकर 15 अगस्त 1947 तक भारत की जनता के अभूतपूर्वशहादत के साथ संघर्ष किया था। क्रान्तिकारियों ने बलिदान और कुर्बानी की परम्परा कायम किया था। हजारो लोग फांसी के फन्दे पर पर चढ़ गये थे। लाखों गोलियों से भून दिये गये थे। करोड़ो लोग बार-बार जन आन्दोलनों के दौरान जेल गये यातनायें सहे तब जाकर 15 अगस्त 1947 के दिन ब्रिटिश साम्राज्यवाद हारकर भारत छोड़ने के लिए बाध्य हुआ था।
भारत के विभाजन का प्रस्ताव-10 जुलाई 1947 को अखिल भारतीय कांग्रेस कमेटी ने पारित किया था। पंडित नेहरू द्वारा लिखित, सरदार पटेल द्वारा समर्थित और गान्धी जी द्वारा अनुमोदित था।
क्या कहीं कोई देशभक्त अपने देश के विभाजन के लिए प्रस्ताव पारित करता है? ऐसी तथाकथित आजादी का मिशाल विश्व इतिहास में नहीं मिलता है। यह बेमिशाल है। जहाँ गुलाम बनाने वाली ब्रिटिश साम्राज्यवादी शक्ति का प्रतिनिधि वायसराय महारानी विक्टोरिया का पोता लार्ड माउन्टबेटन ही सत्ता हस्तान्तरण के लगभग 10 महीने बाद तक भारत का वायसराय बना रहा।
यह सत्ता हस्तान्तरण पूरी तरह से भारत की जनता के खून से डूबी हुयी थी। जहाँ 14 अगस्त 1947 तक भारत का जो हिन्दू और मुसलमान आपस में मिलकर अंग्रेजो से लड़ते थे वहीं अब तथा कथित आजादी के कारण पूरे देश व्यापी पैमाने पर आपस में एक दूसरे का खून बहाने लगे।
इधर 15 अगस्त 1947 से 17 अगस्त 1947 तक यानी 3 दिन तक भारत के लोगों को पता नहीं था कि वे हिन्दुस्तान में हैं या पाकिस्तान में हैं। उधर सत्ताधारी अंग्रेजों ने जान बूझकर साम्प्रदायिक दंगा करवाया था। परिणामस्वरूप 3 दिनों में 10 लाख से अधिक लोग साम्प्रदायिकवादी दंगों में मारे गये। एक करोड़ लोग अपने देश में ही शरणार्थी बनकर रह गये। एक करोड लोग अपने देश में शरणार्थी बनकर एक कोने से दूसरे कोने तक अपना जान बचाने के लिए दौड़-भाग करते रहे। अरबों-खरबों की पूँजी सम्पत्ति और धन देश की जनता का बरबाद हुआ। इसके लिए जिम्मेदार गद्दार पूँजीवादी नेताओं को सजा मिलनी चाहिए थी किन्तु 14 अगस्त की रात्रि में उन्हें गद्दारी का इनाम मिला और सत्तारूढ हो गये। नेहरू पटेल भारत के प्रधानमंत्री और उपप्रधान मंत्री बनकर सरकार चलाने लगे, उधर जिन्ना साहब पाकिस्तान का गवर्नर जनरल बन गये, यद्यपि देश के मालिक भारत की जनता ने इन दोनों को सत्ता नहीं सौंपी।
भारत जो पूर्णसामंती और पूर्ण औपनिवेशिक देश था वह अर्द्धसामंती, अर्द्धऔपनिवेशिक में बदल गया। सत्ता हस्तान्तरण के बाद ब्रिटिश राजसत्ता और व्यवस्था सेना, पुलिस, नौकरशाही, ब्रिटिश का ही कानून कायदे सत्ता और व्यवस्था का पुराना ढाँचा ब्रिटिश साम्राज्य समेत कई साम्राज्यवादी देशों पूँजी की सत्ता अमेरिकी नेतृत्व में आज भी कायम है।
15 अगस्त 1947 को भी ऐसा ही हुआ आज के युग में दलाल पूँजीपतियों के नेतृत्व में कोई भी देश पूरी तरीके से आजाद या स्वतन्त्र नहीं हो सकता है हमारे सत्ताधारी लोगों का सम्बन्ध भारत के बड़े-बडे़ पूँजीपतियों और बडे जमीन्दारों एवं राजाओं-महाराजाओं के साथ हैं जो साम्राज्यवादियों के साथ पुराने औपनिवेशिक सम्बन्धों को कायम रखे हुए हैं।
जहाँ देश का सर्वोच्च न्यायालय कहता है कि इस देश को कोई सरकार नहीं भगवान चला रहे हैं। वहीं निवार्चन आयोग का अध्यक्ष कहता है कि लोग पैसा कमाने के लिए रोज-रोज नई पार्टियाँ बना रहे हैं।
राजनीति अर्थनीति की धुरी है अर्थनीति का चक्कर राजनीति लगाती है। किन्तु वतर्मान समय में समाज में राजनैतिक दरिद्रता छा गयी है। विचारधारा और सिद्धान्तविहीन राजनीति हो गयी है, इसीलिए निजी स्वार्थ के लिए एक पार्टी से दूसरे पार्टी में जाने के लिए भागदौड़ मची हुयी है। शोषणतंत्र को छिपाने के लिये संसदीय लोकतंत्र का ब्रिटिश प्रणाली को 15 अगस्त 1947 के पहले से ही गवर्मेन्ट आफ इण्डिया एक्ट 1935 के जरिये ऊपर से लाद दिया गया था ताकि पूरी स्थिति की जानकारी भारत की जनता को होने ही न पावे।
भारत में झूठ बोलने की आजादी को ही अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता कहा जाता है, भारत का संसदीय लोकतंत्र इसी झूठ का नमूना है, जैसा कि सभी पूंजीवादी पार्टियों के चुनावी वादों और नारों को केन्द्र या राज्यों के सरकारों के रवैये से पता चलता है-
सम्पूणर्क्रान्ति का नारा, शोषणमुक्त समाज बनायेंगे, भ्रष्टाचार मिटाएंगे, बेरोजगारी, बेकारी, मंहगाई, कुशिक्षा समाप्त हागी। 2. हर- हाथ को काम, हर- खेत को पानी, 3. जय-जवान, जय-किसान। 4. गरीबी मिटाओ, 5. बैंको का राष्ट्रीयकरण, 6. भूख,भय और भ्रष्टाचार मिटाऐंगे। 7. शाईनिंग इण्डिया, 8.अच्छे दिन आयेंगे, 9. विदेशों में जमा धन 90 दिन में आयेगा, 15-15 लाख रूपया प्रत्येक परिवार के खाते में जायेगा। 10. न्यू इण्डिया, 11. महिलाओं की सुरक्षा की गारंटी, बेटी-पढ़ाओ और बेटी बचाओ। 12. किसानों की आय 2022 तक दुगनी हो जायेगी।
ऐसे तमाम नारे और वादे जनता के बीच सभी पूंजीवादी पाटिर्यां चुनाव के अवसर पर करती हैं। जनता उनके लुभावने नारे को सुनकर उन्हें चुनती है परिणामस्वरूप जनता को धोखा के अतिरिक्त कुछ नहीं मिलता जैसा कि उपरोक्त नारों से परिणाम सामने हैं। किन्तु चुनाव से देश में कुछ लोगों की किस्मत बदलती है, मंत्री, सांसद, विधायक, जिला पंचायत अध्यक्ष, ब्लाक प्रमुख, ग्राम प्रधान विकास के नाम पर मिले धन को लूट पाट कर बराबर कर देते हैं, जनता उनसे हिसाब भी नहीं मांग सकती।
कहा जाता है कि भारत में जनतंत्र है, लोकतंत्र है। क्योंकि माननीय मोदी जी जनतंत्र द्वारा चुने गये हैं, लेकिन जनता द्वारा चुने जाने पर जनतंत्र का मखौल उड़ा रहे हैं अपने मन की बात कह कर तथा 135 करोड देश वासियों से टी0वी चैनल पर झूठ बोलते हैं। जो पूरा देश देखता व सुनता है, यह कैसा जनतंत्र है या राजतन्त्र है इटली के मुसोलिनी और जमर्नी के हिटलर से भी आगे है।
अपना भारत वर्ष को कृषि प्रधान देश कहा जाता है, 70 प्रतिशत लोग गांवों में निवास करते हैं और खेती करते हैं। उनकी जीविका कृषि से ही चलती है, उन्ही को अन्नदाता भी कहते है, भारत में 40 प्रतिशत लोग भूमिहीन हैं।
आजादी की लड़ाई चल रही थी तो उस समय 1946 से 1951 तक तेलंगाना में हथियार बन्द किसान जमीन के लिये संघर्ष कर रहे थे। तेलंगाना किसान संघर्ष के ताप से डरके 1952 में तथाकथित जमीन्दारी उन्मूलन हुआ कुछ किसानों को जमीन मिली। जो खुद काश्त थे सरकार को दस गुना लगान देकर भूमिधर हो गये और जमीन के मालिक हो गये जो दसगुना लगान नहीं दे पाए वे खुद काश्त करने के बावजूद भी भूमिहीन हो गए। जिनके नाम से खुदकाश्त नहीं रहा मगर खेती करते थे वे भूमिहीन हो गए। इस प्रकार जोतने वाले को जमीन नहीं मिल पायी।
1952 के पहले जमीन के मालिक राजा-रजवाडे, व जमीन्दार ही होते थे आम जनता का जमीन पर कोई अधिकार नहीं था। गांव में भी लोग जमीन्दारों या राजाओं के आदेश पर बसते थे और मकान बनाते थे, 1952 के बाद भी उन्होंने हजारों-हजारों एकड़ जमीन देवी-देवताओं, तथ मन्दिर के नाम दर्ज करा लिया है। क्योंकि जमीन्दारों, राजाओं-महराजाओं के नाम आज भी जमीन्दारी कायम है, भोजन, वस्त्र और मकान का निदान जमीन से जुड़ा हुआ है। जब जमीन से खेती होगी भोजन की समस्या हल होगी। जमीन से मकान की समस्या और जमीन से ही वस्त्र की समस्या हल होगी, किन्तु खेद की बात है किसी भी सरकार ने ऐसा नहीं किया कि जमीन जोतने वाले को जमीन मिले या यह सरकार किसान विरोधी, जन विरोधी है, क्योंकि किसान विरोधी जमीन अधिग्रहण अध्यादेश 2015 में ही पास कर दिया है।
2020 में किसान विरोधी तीन काले कानून बने जो जमीन छीनकर पूंजीपतियों के हक में अदानी, अम्बानी के हाथ गिरवी करने की साजिश थी। जिसके लिये गत वर्ष तीन काले कानून बनाये गये थे जिसे किसानों के अथक संघर्ष के बाद सरकार को वापस लेने पड़ा। 1967 में नक्सलवाड़ी किसान आन्दोलन जो पूरे देश में कई वर्षों तक चला जिससे सरकार की नींव हिला दिया और जिसकी चिंगारी पूरे देश में आग तरह फैल गया। देश के कोने-कोने में जमीन का सवाल उठने लगा। तिभागा, छबहर, कुड़वा मानिकपुर, तमाम जगहों पर जमीन के लिये आन्दोलन हुआ परिणामस्वरूप सरकार को बाध्य होकर कृषि एवं मकान आदि के लिये पट्टा देना शुरू किया।
क्योंकि पूरी दुनिया में दो व्यवस्थाऐं हैं-
1. पूँजीवाद,
2. समाजवाद,
पूंजीवाद का चरित्र उजागर हो गया जो आपके सामने है। समाजवाद दुनिया के कई देशों में चीन, क्यूबा, उत्तरी कोरिया, वियतनाम, लाओस, कम्बोडिया, जिम्बाम्बे, वल्गारिया जहाँ मजदूर वर्ग की पार्टी है। मजदूरों का राज हैं वहां कोई बेकार व बेरोजगार नहीं है न कोई भूखा है न नंगा है, समाजवादी चीन के पास अपार सम्पत्ति और पूँजी है। विश्व का सबसे शक्तिशाली और धनी देश बन गया। जो 1949 में क्रान्ति के पहले 40 देशों से पीछे था और वह आज नम्बर 1 हो गया है। उसी चीन में लगभग सभी रोजगारशुदा है। यहां की तुलना में वहां की प्रति व्यक्ति आय 6 गुनी है।
किसी देश की स्वतन्त्रता का तात्पर्य है उस देश की जनता के आत्म निर्णय के अधिकार से होता है। दूसरे शब्दों में किसी देश के आर्थिक राजनैतिक मामले को खुद उस देश की जनता द्वारा समाधान करने का अधिकार होता है। वास्तव में यही स्वतन्त्रता कहा जाता है, जो अपने देश में नहीं हुआ। आज देश की जनता की मांग है- दूसरी आजादी मतलब व्यवस्था परिवर्तन, यानी भारत में नवजनवादी क्रान्ति अर्थात् साम्राज्य वाद विरोधी सामान्त वाद विरोधी क्रान्ति। तब हमारे महान क्रान्तकारियों सरदार भगत सिंह, सुभाष चन्द्र बोस, चन्द्रशेखर आजाद, असफाक उल्ला खाॅ, सुखदेव, राजगुरू, बटुकेश्वर दत्त, के सपने साकार होंगे।
जब तक भूखा इन्सान रहेगा धरती पर तुफान रहेगा।
*सूर्यदेव सिंह ‘‘एडवोकेट’’*
*आल इण्डिया जनरल सेक्रेट्री*
*भारत चीन मैत्री संघ,बस्ती*
*मो0नं0-9532507014*
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5 *इसे व्यवस्था परिवर्तन की लडाई में बदलना होगा*
अंग्रेज सरकार ने
भगतसिंह, राजगुरु और सुखदेव को
नियमों के खिलाफ जाकर
सायं को फांसी देकर
और
रात को ही पारिवारिक सदस्यों से छुपकर
चिता में अग्नि देकर
सुलगती विद्रोह की आग को दबाने की कोशिश की।
89 साल बाद
मनीषा की लाश
रात के अंधेरे में जला दी गई
सरकारी आदेश के बाद।
लेकिन, लोग उठ खड़े हो रहे हैं
चिता की जलती आग
बेचैन कर रही है
शांत हो चुके ह्रदयों को
अब यह चिंगारी उठी ही है तो
इसे दावानल में बदलना ही होगा
बिना किसी अगली घटना का इंतजार किये।
आरोपियों को सख्त सजा दिलानी ही होगी
मगर ये भी याद रखना होगा
बलात्कारी कोई यूं ही नहीं बन जाता
ये सड़ी गली इस व्यवस्था की देन है
इसलिए लड़ाई
बलात्कारियों की सजा तक ही नहीं रूकनी चाहिए
इसे व्यवस्था परिवर्तन की लडाई में बदलना होगा।
*संदीप कुमार*
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6. *आर्थिक जनतंत्र की स्थापना ही*
*सामाजिक समानता की कुंजी है*
आर्थिक समानता के बिना राजनैतिक, सामाजिक और सांस्कृतिक समानता का नारा संविधान निर्माताओं द्वारा दलित-शोषित मेहनतकशवर्ग को दिया गया एक धोखा है. इससे किसी भी तरह की न तो कोई समानता आई है, न आ सकती है, जबकि वास्तविक गणतंत्र के लिए आर्थिक समानता एक मूलभूत बात है, लेकिन वर्तमान सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था में जो तंत्र है, उसमें आम गण यानी "दलित-शोषित श्रमिकवर्ग" के लिए न कोई स्थान रहा है, न हो सकता है. इसीलिए इसे गणतंत्र न कहकर पूंजीतंत्र कहना ज़्यादा उपयुक्त मालूम पड़ता है.
इसीलिए मौजूदा संविधान की प्रस्तावना में लिखे गए "समानता, स्वतंत्रता, न्याय, बंधुता समाजवाद और धर्मनिरपेक्षता" जैसे शब्द झूठे हैं, उनका कोई मूल्य नहीं.
मात्र 'एक व्यक्ति एक मूल्य' के सिद्धांत से कोई सामाजिक समानता न पैदा हुई है, न हो सकती है.
वास्तविक गणतंत्र के लिए आर्थिक जनतंत्र की स्थापना एक मूलभूत बात है जिसे शासकवर्ग द्वारा बड़ी चतुराई के साथ संविधान की प्रस्तावना में शामिल नहीं किया गया है.
इसीलिए आज मनाया जा रहा गणतंत्र दिवस कोई वास्तविक गणतंत्र दिवस नहीं है.
आर्थिक जनतंत्र की स्थापना के बग़ैर यह गणतंत्र, पूंजीतंत्र और भीड़तंत्र बनकर रह गया है.
भारत में मौजूद वर्णव्यवस्था, जातिवाद और धार्मिक उत्पीड़न का मूल आधार, श्रम का शोषण और निजी संपत्ति का अधिकार रहा है, लेकिन यह संविधान श्रम के शोषण और निजी संपत्ति के अधिकार को संवैधानिक और क़ानूनी तौर पर मान्यता प्रदान करता है.
भारत में मौजूद वर्तमान सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था का मूल आधार भी श्रम के शोषण और निजी संपत्ति के स्वामित्व पर ही आधारित है.
यह संविधान शासकवर्ग द्वारा इसी सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था को संचालित और नियंत्रित करने वाला दस्तावेज़ है और कुछ नहीं.
इसीलिए इस सामंती-पूंजीवादी व्यवस्था के चलते चाहे कितने भी संवैधानिक, क़ानूनी, धार्मिक और सामाजिक सुधार कर लिए जाएं या शासकवर्ग द्वारा आरक्षण जैसी कुछ छोटी-मोटी आर्थिक राहतें दे दी जाएं, इससे दलित-शोषितवर्ग की सामाजिक, राजनैतिक और शैक्षणिक स्थिति पर कोई फ़र्क़ नहीं पड़ने वाला. कथित आज़ादी के बाद के 75 वर्षों का अनुभव इसी तथ्य को उज़ागर करता है.
सच यही है कि आर्थिक जनतंत्र की स्थापना किए बग़ैर "दलित-शोषित मेहनतकश वर्ग वर्णव्यवस्था, जातिवाद, धार्मिक उत्पीड़न और आर्थिक शोषण और दमन" से किसी भी सूरत में मुक्ति नहीं पा सकता. यह असंभव है.
इसीलिए राजनैतिक, सामाजिक सांस्कृतिक व अन्य सभी तरह की समानताओं की एकमात्र कुंजी- आर्थिक जनतंत्र-की स्थापना में निहित है.
?इसीलिए यह बात अच्छी तरह से समझ लेनी ज़रुरी है कि आर्थिक जनतंत्र की स्थापना के बग़ैर संविधान में लिखे स्वतंत्रता, न्याय, बंधुता, समाजवाद, धर्मनिरपेक्षता जैसे अच्छे-अच्छे और मनमोहक शब्द, बिल्कुल आभासी व झूठे हैं, उनका कोई बहुत ज़्यादा मूल्य नहीं है!
इसी तथ्य को स्पष्ट करते हुए पूंजीवाद के प्रवक्ता स्वयं नेहरूजी ने कहा था:
समाजवाद जनतंत्र का अपरिहार्य परिणाम है. राजनीतिक जनतंत्र में यदि आर्थिक जनतंत्र शामिल नहीं है, तो वह निरर्थक है. आर्थिक जनतंत्र और कुछ नहीं, समाजवाद है.
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एक ऐतिहासिक और अतिमहत्वपूर्ण तथ्य है कि आर्थिक जनतंत्र की स्थापना की शुरुआत दलित-शोषित मेहनतकश वर्ग द्वारा उत्पादन के समस्त साधनों पर अपना प्रभुत्व क़ायम करने के बाद ही संभव हो सकती है.
वोट के माध्यम से सत्ता परिवर्तन तो संभव है, लेकिन व्यवस्था परिवर्तन कतई संभव नहीं.* *इसीलिए 'एक व्यक्ति एक मूल्य' जैसे पूंजीवादी फ़िकरे से समानता का आभास तो होता है, लेकिन इससे वास्तविक समानता प्रकट नहीं होती.
इसीलिए व्यवस्था परिवर्तन और उसके बाद आर्थिक जनतंत्र की स्थापना के इलावा, "दमित-पीड़ित/शोषितवर्ग" के पास अपनी मुक्ति का फ़िलहाल और कोई रास्ता नहीं है.
*व्हाट्सएप यूनिवर्सिटी से प्राप्त ज्ञान*
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7. भात-भात करते भूख से मरते बच्चों के देश में गणतंत्र दिवस मनाने की व्यर्थता !
निर्मल कुमार शर्मा
*(भारत के 74 वें गणतंत्र दिवस के मौके पर )*
*गणतांत्रिक देश उस देश को कहते हैं, 'जिसकी सत्ता जनसाधारण में समाहित हो ! गण मतलब जन समूह और तंत्र मतलब शासन व्यवस्था यानी जो शासन जनता द्वारा जनता के लिए हो,सभी नागरिकों को बराबरी और सभी को न्याय पाने, रोटी और शिक्षा पाने का समान अधिकार प्रदान करता हो,वही शासन प्रणाली गणतांत्रिक प्रणाली कहलाने का सच्चा अधिकारी है ! '*
*इस देश को गणतंत्र बनने के 73 वर्षों बाद भी क्या उक्तवर्णित परिभाषा पर भारत की गणतांत्रिक प्रणाली अभी तक खरी उतर पाई है ? इसका जबाब है बिल्कुल नहीं ! ब्रिटिशसाम्राज्यवादियों की गुलामी से मुक्ति के बाद इस देश की सत्ता फिसलकर देशी साम्राज्यवादियों और चंद पूँजीपतियों की गोद में जा गिरी है ! इस देश में अभी भी इतनी विकराल आर्थिक असमानता और बेइमानी तथा नाइंसाफी है कि एक तरफ भूख से बिलबिलाते हुए नन्हें बच्चे 'भात-भात की रट लगाए हुए' भूख से दम तोड़ देते हैं ! किसान अपनी फसलों की जायज कीमत की रट लगाए हुए वर्षों इस देश की राष्ट्रीय राजधानी के चारों तरफ बैठने को बाध्य किए जाते हुए 750 किसानों की मौत हो जाती है ! दूसरी तरफ एक-दो पूँजीपतियों की प्रतिदिन की आमदनी 36.71 करोड़ की है ! ऐसा नहीं है कि ये प्रतिदिन करोड़ों की कमाई करनेवाले पूँजीपति बहुत ही काबिल और कर्मठ हों, ऐसा बिल्कुल नहीं है, अपितु उनके उस बड़े आर्थिक साम्राज्य बनाने में देश के कर्णधारों की उनको देश के संसाधनों को लगभग लुटा देने की,की गई उदारता से ही उनका आर्थिक साम्राज्य का इतना विस्तार हुआ है ! यहाँ की व्यवस्था में न्यायालय, सेना, पुलिस और अन्य सभी सरकारी मशीनरी का पूरा ताम-झाम केवल कुछ धनी और ताकतवर लोगों के कुछ समूहों की सुरक्षा के लिए दिन-रात काम करती रहतीं हैं ! यहाँ का न्याय व्यवस्था कुछ धनी और ताकतवर लोगों की सुरक्षा में हाथ बाँधे खड़ी रहती है ! स्वतंत्रता के बाद आपने इन बीते 75 सालों में किसी अमीर और धनी व्यक्ति को उसके किए जघन्यतम् अपराध के लिए भी मौत की सजा पाते हुए कभी देखा है ? फाँसी के तख्ते पर लटकते हुए कभी देखा है ? कभी भी नहीं ! क्योंकि हमेशा यहाँ के न्यायालय एक कमजोर,निर्बल और निर्धन व्यक्ति को फाँसी पर चढ़ा देते हैं ! प्रश्न है कि क्या केवल गरीब और निर्धन व्यक्ति ही अपराधिक कृत्य करते हैं ? ऐसा बिल्कुल नहीं है, होता यह है कि एक धनी व्यक्ति गंभीर से गंभीरतम् अपराध करके अपने पैसे के बलपर मंहगे से मंहगे वकील करके अपने किए गंभीरतम् अपराध के कुकृत्य से भी साफ बच निकलते हैं, जबकि एक गरीब बेरोजगारी से त्रस्त व्यक्ति, जिसे दो जून का खाना भी मयस्सर नहीं है, वह मंहगा वकील कैसे कर सकता है ? उसके लिए मंहगा वकील करना संभव ही नहीं है ! इस विद्रूपताओं वाली व्यवस्था के अंधे, जाहिल और सत्ता के दुमछल्ले जज उस गरीब को आसानी से सूली पर चढ़ा देते हैं ! उस स्थिति में इस व्यवस्था की कथित न्याय व्यवस्था कतई न्यायपरक व्यवस्था ही नहीं है ! अपितु न्याय के नाम पर एक ढोंगमात्र है ! उसी प्रकार पुलिस और सेना का भी दुरूपयोग हमेशा धनी व ताकतवर लोगों के पक्ष में और गरीबों की हमेशा मुखालफत और उनके क्रूर दमन के लिए ही उनका हमेशा से दुरूपयोग ही होता आया है !_*
*दुनिया में आज हमारी स्थिति बहुत ही हास्यास्पद और दयनीय हो गई है । हम और हमारे नेता वास्तविकता के धरातल पर अपनी हालात का आकलन न करके, केवल उसे छिपाने और झूठ बोलकर अपने को कथित विश्वगुरू और आध्यात्मिक गुरू आदि भ्रामक और काल्पनिक बातें करके स्वयं को श्रेष्ठ मान लेने का भ्रम पालकर शुतुरमुर्ग जैसे खतरे का आभास होने पर रेत में अपना मुँह छिपा लेने मात्र से खतरा टल जाता है ! जैसी ग्रंथि पाल लिए हैं ! हम अपनी वर्तमान स्थिति का ईमानदारी से आकलन करके उसका निराकरण न करके उसे कुशलता से झूठ बोलकर, ढकने और छिपाने के कार्य में बहुत कुशल और पारंगत हैं !*
*संयुक्त राष्ट्र संघ द्वारा जारी विश्व खुशहाली सूची के 156 देशों में अपने भारत महान की दयनीय हालत देख-सुनकर रोना आ जाता है ! देश के कर्णधारों के कथित सबका सबका साथ सबका विकास को मुँह चिढ़ाता और आइना दिखाता ये रिपोर्ट भारतीय समाज में व्याप्त सुशासन,प्रति व्यक्ति आय, स्वास्थ्य, जीवित रहने की उम्र, भरोसा, सामाजिक सहयोग, स्वतंत्रता और उदारता की दयनीय स्थिति की पोल खोल के रख देता है ! इस देश में सबसे दुःखद यह बात है कि वर्तमान सत्ता के कर्णधारों द्वारा अपने पालतू और चमची मिडिया द्वारा विकास का लाख ढिंढोरा पीटने के बावजूद भी भारत की स्थिति पिछले सालों में लगातार बद से बदतर होती गई है,मसलन भारत इस खुशहाली सूची में 2016 में 118 वें,2017 में 122 वें, 2018 में 133 वें और इस साल और लुढ़क कर 140 वें स्थान के दयनीय पायदान पर जा पहुंचा है !*
*वास्तव में इस देश के राजनैतिक कर्णधारों के स्वतंत्रता के प्रारम्भिक दो-ढाई दशकों के बाद से ही राजनीति का मतलब आम आदमी के सुखदुख, शिक्षा, स्वास्थ्य, रोजगार आदि से ध्यान पूर्णतः हटकर खुद के विलासितापूर्ण जीवन जीने,खरबों के हवाई जहाजों में बैठकर दुनियाभर की सैर करने और अरबों-खरबों रूपये विदेशों में जमाकर,राजनीति को पूर्णतः एक कमाई का पेशा बना लेना हो गया है ! देश की खुशहाली का मतलब देश के हर गरीब से गरीब नागरिक को कम से कम भोजन,वस्त्र और सिर ढकने का एक अदद घर मिल जाने की सुनिश्चिंतता तो रहनी ही चाहिए ! केवल अरबपतियों की संख्या बढ़ाने वाली दुर्नीति और उस दुर्नीति पर स्वयं अपनी पीठ थपथपा लेने मात्र से देश के लोग खुशहाल कैसे हो जायेंगे ? इसके विपरीत इन संवेदनहीन राजनीति करने वाले भारतीय नेताओं को सह अस्तित्व, भाई-चारे, अमन-चैन, मिल-जुलकर कर शांतिपूर्वक रहने वाले भारतीय समाज में धार्मिक और जातिगत् वैमनस्यता और विग्रह पैदाकर दुःखदरूप से दंगे-फसाद फैलाकर अपने वोट की फसल काटने का दुष्कृत्य करने में जरा भी संकोच नहीं है ! इसी प्रकार इस देश की लगभग आधी आबादी मतलब लगभग 60 करोड़ किसानों को उनके द्वारा पैदा फसल को उचित मूल्य न देकर आत्महत्या करने को बाध्य करना ! उससे भी गंभीर अपराध, किसानों द्वारा उत्पन्न 40 प्रतिशत खाद्यान्न को जानबूझकर उचित भंडारण सुनिश्चित न कर, हर साल सड़ाकर, इसी देश के लगभग 20 करोड़ लोगों को रात में भूखे पेट सोने को बाध्य करने, बेरोजगारी से त्रस्त युवाओं के रोजगार माँगने पर उनको लाठियों से पीटकर उन्हें लहूलूहान करने जैसे कुकृत्यों को करने ने भारत को इस दयनीय स्थिति में ला खड़ा कर दिया है !*
*आखिर 60 करोड़ दुःखी किसानों और 12 करोड़ बेरोजगारी से त्रस्त युवाओं और प्रतिदिन 20 करोड़ भूखे सो जाने वाले लोगों मतलब कुल मिलाकर 92 करोड़ लोगों से हम खुश रहने की आशा कैसे कर सकते हैं ?इस देश में गलत नीतियों की वजह से कितना विरोधाभास है कि एक तरफ कुल 140 करोड़ लोगों में 92 करोड़ लोग मतलब लगभग 65 प्रतिशत से भी अधिक लोग भूख से बिलबिला रहे हैं और आत्महत्या कर रहे हैं,वहीं कथित आर्थिक महाशक्ति बनने जा रहे इसी देश में दूसरी तरफ मुकेश अंबानी प्रतिदिन 36.71 करोड़ की सरकारी मदद से कमाई कर रहा है ! ऐसी विद्रूपतापूर्ण स्थिति में ये देश खुशहाल देश कैसे हो सकता है !*
*सबसे बड़ी विडम्बना यह है कि हमारे देश में अन्न,फल,दूध-दही आदि सभी कुछ प्रचुर मात्रा में रहते हुए भी,यहाँ के लोगों को जानबूझकर दुःखी और वंचित करने का एक मात्र कुकृत्य यहाँ के भ्रष्ट,पतित,अपराधी व्यभिचारी,क्रूर और असहिष्णु कथित नेताओं की दुर्नीतियों की वजह से हो रहा है ! जब तक यहाँ की राजनीति में अपराधियों,माफियाओं,झूठों, मक्कारों जुमलेबाजों, दंगाजीवियों, हत्यारों, मॉफियाओं, गुँडों, मवालियों और लंपटों का वर्चस्व रहेगा, तब तक इस देश के बहुसंख्या में लोग हमेशा दुखी रहेंगे । इस दुखद स्थिति में तभी सुधार होगा, जब इस देश का नेतृत्व युवा, कर्मठ,ईमानदार,सच्चरित्र,शिक्षित वर्ग के हाथों में सत्ता आयेगी,नहीं तो कोई आश्चर्य नहीं कि यह देश इन सत्ता-पिपासुओं के हाथों अगले सालों में इस देश को खुशहाली की सूची के 156 वें अन्तिम पायदान पर भी पहुँचने को अभिशापित होना पड़ जाय ! पूरे देश की जनता एक तरफ भूख, गरीबी, अशिक्षा, बेरोजगारी, कुपोषण आदि गंभीरतम् और मूलभूत समस्याओं से त्रस्त रहे और दूसरी तरफ दिल्ली के बोट क्लब पर कुछ रईसों के समूह और उनके दलाल सत्ता के कर्णधारों के रंगारंग गणतंत्र दिवस मना लेने मात्र से यह देश कभी भी गणतांत्रिक और खुशहाल देश नहीं बन पाएगा ।*
*निर्मल कुमार शर्मा,*
*गौरैया एवम् पर्यावरण संरक्षक*
*nirmalkumarsharma3@gmail.com_*
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8. *तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?*
ये कैसी आज़ादी है... ये किसकी आज़ादी है
मुट्ठीभर लोगों को छोड़ के भूखी नंगी हर आबादी है
जितना देश तुम्हारा है ये उतना देश हमारा है
भारत की मेहनतकश जनता ने इसे संवारा है
ऐसा क्यों है कहीं ख़ुशी है और कही बर्बादी है
ये कैसी आज़ादी है... ये किसकी आज़ादी है
मुट्ठीभर लोगों को छोड़ के भूखी नंगी हर आबादी है
अंधियारों से बाहर निकलो अपनी शक्ति जानो तुम
दया धरम की भीख न मांगो हक़ अपना पहचानो तुम
अन्याय के आगे जो झुक जाए वो अपराधी है
ये कैसी आज़ादी है... ये किसकी आज़ादी है
मुट्ठीभर लोगों को छोड़ के भूखी नंगी हर आबादी है
जिन हाथों में काम नहीं है उन हाथों को काम भी दो
मजदूरी करने वालो को मजदूरी के दाम भी दो
बूढ़े होते हाथ पाँव को जीने का आराम भी दो
दौलत के हर बटवारे में मेहनत कश का नाम भी दो
झूठो के दरबार में अब तक सच्चाई फरियादी है
ये कैसी आज़ादी है... ये किसकी आज़ादी है
मुट्ठीभर लोगों को छोड़ के भूखी नंगी हर आबादी है
माफ़ करना मै इस आज़ादी की बधाई नही दे सकता हूँ, हम सभी जानते है की इस आज़ादी के लिए हमारे कई क्रांतिकारी साथियों ने अपने खून से सींचा है, इस धरती को, इस मिट्टी को, लेकिन उनका ये बलिदान व्यर्थ हो गया है, क्रांतिकारी साथियों की शहादत को हमने पचा भी लिया है और डकार भी नहीं लिया। जिस देश में जन्मजात कुछ दिनो के मासूम बच्चे साथ बलात्कार किया जाता है। आज स्थिति ये है कि आपकी जवान बेटी आधी रात को 2 किलोमीटर पैदल भी सुरक्षित नहीं चल सकती तो क्या यही है आजादी…. आज NCRB की रिपोर्ट के हिसाब से हर मिनट में सैकड़ो बलात्कार हो रहें हैं, ये कैसी आजादी है जहाँ देश की बहन बेटियां सुरक्षित सड़को पर भी न चल सकती। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
यँहा कुछ लोगों द्वारा कुछ लोगों के लिए यह व्यवस्था बनाई गई है और बहुसंख्यक जनता पर थोप दी जाती है और कहा जाता है जनता के द्वारा जनता के लिए! सुनने में कितना सुंदर लग रहा है, और इसी सुंदरता से हमें समझाया और हम समझने भी लगे कि हमारे द्वारा यानी जनता द्वारा चुनी हुई हमारी यानी जनता की सरकार है और हम दुनिया का सबसे बड़ा लोकतंत्र मानकर खुश होते हैं। ये कैसा लोकतंत्र है? ये कैसी आजादी है? जंहा इतनी आजादी है कि हमारे हाँथ-पांव की बेड़िया खोल कर चारो तरफ गड्ढ़ा खोदकर कहते हैं कि जाओ आप आजाद हैं, एसी ही आजादी है इस तथाकथित लोकतंत्र में। एक तरफ तो कहते हैं कि हम सभी भारतीयों को अभिब्यक्त की आजादी है मगर जब हम अपनी बात कहते हैं तो हमारे ऊपर UAPA जैसा काला कानून लगाकर जेल में ठूंस देते हैं। ये कैसी आजादी है इस तथाकथित लोकतंत्र में! जंहा कहते हैं जाओ शापिंग माल खोलो, जाओ कारखाना खोलो, जाओ कार खरीदो, जाओ हेलिकॉप्टर खरीदो, जाओ चुनाव लड़ो किसने मना किया है। अरे भई इतनी आजादी तो गुलाम भारत में गोरो के राज में भी थी। तब भी लोगों को बोलने की आजादी थी और तब भी कार खरीदने, शापिंग माल खोलने, कारखाना खोलने की आजादी तब भी थी। मगर तब भी लोगों के पास ये सब खरीदने के लिए ना पैसे थे और ना आज है। तब भी लोगों के पास कुछ ना कुछ था और अब भी कुछ ना कुछ है। तब भी लोगों को कुछ ना कुछ मिलता था अब भी कुछ ना कुछ मिलता है। ये कुछ ना कुछ कोई व्यवस्था आ जाए हमेशा मिलेगा। हां गोरो के समय ना वोट देनें का अधिकार था और ना ही चुनाव लड़ने का। बस इतना ही अंतर है गोरो और कालों के शासन में, और यदि यदि वोट देना और लड़ना से जनता का भला होता तो भारत को आजाद हुवे 74 साल हो चुके हैं तो आखिर क्या बदला ये लोकतंत्र आने से? ये सवाल आपके लिए छोड़े जा रहा हूं। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
अब वर्तमान में लोकतंत्र के स्वरूप की बात करते हैं। आज देश में लोकतंत्र स्थापित हुवे 68 साल से ऊपर हो गए। क्या बदलाव आया भारत के बहुसंख्यक जनता के जीवन में? 2019 में ऑक्सफैम की एक रिपोर्ट आयी थी, उस रिपोर्ट के अनुसार भारत में 1% लोगों के पास 73% संपत्ति इकट्ठा हो चुकी है। वहीं नीचे की 60% आबादी सिर्फ 4.8 % पर गुजारा करने को मजबूर है। नीचे के 65 करोड लोगों के पास जितनी संपत्ति है। उससे अधिक संपत्ति ऊपर के सिर्फ नौ पूजी पतियों के पास इकट्ठा हो चुकी है। वास्तविक स्थिति इससे भी अधिक भयावह है। "जागरूक इन" की फरवरी 2020 की एक रिपोर्ट के अनुसार भारत में कुल 2 लाख 63 हजार करोड़पति हैं और 138 अरबपति हैं। यह करोड़पति एवं अरबपति रुपए के लिहाज से नहीं डालर के लिहाज से करोड़पति और अरबपति हैं। जो 1% अमीर लोग हैं, जिनके पास आज 2020 में लगभग 80% सम्पत्ति इकट्ठा हो चुकी होगी, भारत की आबादी तकरीबन 138 करोड़ है। 138 करोड़ लोगों में से अधिकतम 2 लाख लोग ऐसे होंगे जो बड़ी जमीनों, बड़े कल-कारखानों, खान-खदानों, शिक्षण संस्थानों, अस्पतालों आदि उत्पादन के संसाधनों के मालिक हैं। तो ये लोकतंत्र किसके लिए है। ये 1% जनता के लिए या फिर भारत की बहुसंख्यक जनता के लिए। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
आज भारत को आजाद हुए 74 वर्ष हो चुके हैं। ये कैसी आजादी है? और किसकी आजदी है? ये झूठी आजादी है! जिस घर में पहले एक कार होती थी, उस घर में हर सदस्य के लिए अलग-अलग कारें हैं। जो हजारपति थे, वे लखपति हो गए हैं। जो लखपति थे, वे करोड़पति और करोड़पति, अरबपति बन गए हैं। क्या बदला इस आजादी से? बस आजादी से पहले मुट्ठीभर लोगों के पास ही उत्पादन के संसाधनों का ही कब्जा था और आज भी मुट्ठीभर लोगों का ही कब्जा है। इन 74 सालों में क्या बदला? बस बदलीं तो सरकारें! सरकारें आती और जाती रही, बदलाव आया तो केवल अमीर, पूंजीपतियों के जीवन मे! आज भी भारत की भूखी, नंगी मेहनतकश जनता अपनी भूख से आजादी! महंगाई से आजादी! भ्रष्टाचार से आजादी! बेरोजगारी से आजादी!…. के लिए संघर्ष कर रही है। ये आजादी झूठी है! ये आजादी एक भ्रम है! ये आजादी एक धोखा है! इस आजादी से सिर्फ मुट्ठीभर लोगों का ही विकास हुवा है। रोजमर्रा के जीवन जीने वाले मेहनतकश जनता के जीवन मे थोड़ा सा…. वो भी लगातार संघर्ष जारी है इस महंगाई, भ्रष्टाचार, सूदख़ोरी, बेरोजगारी, तंगहाली…. से, और आज हम और भी भयानक स्थिति मे जी रहे है। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री अमर्त्य सेन कहते है की एक करोड़पति बनने मे कई हजार लोगों को गरीब होना पड़ता है…. हालत देश की ऐसी है की देश की 90% संसाधनों पर देश के 1% लोगों का कब्ज़ा है। कहने को तो देश का विकास के साथ-साथ जनता का भी विकास हुवा है, पर वहीं दूसरी ओर कड़वा सच यह भी है कि देश के लगभग 70 प्रतिशत लोग केवल 100 रु. प्रतिदिन पर गुजर-बसर करने को मजबूर हैं। तकरीबन 30 करोड़ लोगों को बमुश्किल से एक वक्त का भोजन नसीब होता है। सेनगुप्ता आयोग की रिपोर्ट के अनुसार, बेघरों की संख्या बढ़ रही है और लगातार बढ़ती जा रही है। बेरोजगारों की फौज खड़ी है। गरीबी ऐसी है कि कुछ लोगों को अपने तन ढकने के लिए भी पर्याप्त कपड़े नहीं मिल रहे हैं। सरकार ने यह मानक तय कर रखा है की अगर शहर में 32 रुपये और गांव में हर रोज 26 रुपये खर्च करते है तो आप गरीब नहीं माने जायेंगे। लेकिन अमीर की जिंदगी का कोई रेट तय नहीं है। क्या ये गरीबों के साथ मजाक नहीं की 26 से 32 रुपए कमाने वाला गरीब नहीं। ये गरीब मेहनतकश जनता दिनभर दो वक्त की रोटी के लिए हांड-तोड़ की मेहनत करते हैं फिर भी दो वक्त की रोटी का जुगाड़ नहीं कर पाता है तो ऐसे लोगों को न तो स्वतंत्राता दिवस या गणतंत्रा दिवस से मतलब होता है और न उन्हें इन सबकी जानकारी होती है। ऐसे लोगों को यह भी नहीं पता कि स्वतंत्राता क्या होती है, और परतंत्राता किस चिड़िया का नाम है। इनकी दिनचर्या दो जून की रोटी का जुगाड़ करने तक ही सीमित है। इनके लिए स्वतन्त्रा के क्या मायने हैं? देश की मेहनतकश जनता 1947 से पहले भी गुलाम थी और आज भी गुलाम हैं। बस फर्क इतना है कि पहले गोरों के गुलाम थे और आज कालों के गुलाम हैं। भारत की मेहनतकश जनता गोरे अंग्रेजों की गुलामी से मुक्त तो हुए हैं, पर काले अंग्रेजों के गुलाम अभी भी हैं। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
आजादी क्या है? विकास क्या है? क्या डंडे के दम पर लाया गया विकास अथवा मेहनतकश जनता से जबरदस्ती जमीन छीन कर लाया गया विकास जनता के पक्ष में माना जा सकता है? यह कैसा विकास है? किसके गले को दबा कर? किसकी झोंपड़ी जला कर? किसकी बेटी को नोच कर? किसके बेटे को मार कर? किसकी ज़मीन छीन कर? असल में यही विकास किया जा रहा है? और हकीकत भी यही है कि देश के मेहनतकश को उजाड़ कर उनकी ज़मीने कुछ धनपतियों को दे देना ही विकास है। क्या लोगों को यह पूछने का हक नहीं है की हमारी ज़मीन छीन लोगे तो हम कैसे जिंदा रहेंगे? जब तक देश के समस्त संसाधनों का उपयोग सभी वर्गों के लिए उचित ढंग से नहीं होगा तब तक हमारी आजादी अधूरी है। शिक्षा, रोजगार, चिकित्सा आदि सुविधाओं की ही बात ले लीजिए। कुछ अपवादों की बात छोड़ दें। क्या किसी गरीब का बच्चा पढ़ाई में तेज होते हुए भी आई.ए.एस., आई.पी.एस., डॉक्टर, इंजीनियर आदि बन सकता है? बिल्कुल नहीं। क्योंकि पूरे देश में आज कुल सरकारी नौकरी मात्र 1 करोड़ के आस-पास ही बची हैं, तो मिलेगा कुल 1 करोड़ लोगों को ही तो सरकारी नौकरी मिलेगी। दिखाने के लिए कि मेहनत करो सफल हो जाओगे देखो फलनवा मोची/चपरासी/सब्जीवाला/रिक्शेवाला…. का लड़का/लड़की ने खूब मेहनत से दिल लगाकर पढ़ाई किया तो आज कलेक्टर/फलां अधिकारी/फलां कर्मचारी बन गया की बात बताते हैं। पर ये नहीं बताते कि गिनती के पोस्ट ही बची है और उस पोस्ट पर अप्लाई करने वाले लाखों ही नहीं करोड़ों लोग हैं तो हम कितनी भी कड़ी परिश्रम से तैयारी कर लें नौकरी तो कुछ को ही मिलेगी और वो भी घूंस देकर भ्रष्टाचार से ही। एक इंजीनियर या डॉक्टर की पढ़ाई में लाखों रुपये खर्च होते हैं। किसी भी आई.आई.एम., जहां से वित्तीय विशेषज्ञ निकलते हैं कितने लोग सक्षम होते हैं अपने बच्चों को पढ़ाने में। इन प्रोफेशनल कोर्सेज तो दूर की बात ग्रेजुवेसन में बी ए तक की फीस भरने में सक्षम नहीं है तो फिर ये महंगे प्रोफेशनल कोर्सेज की फीस आम मेहनतकश जनता कैसे भरेगी? इस हालात में भला एक गरीब आदमी अपने बच्चे को डॉक्टर, इंजीनियर या अर्थ विशेषज्ञ कैसे बना सकता है? जबकि जिनके पास धन है, उनके बच्चे देश ही नहीं, विदेश में पढ़ रहे हैं। जिस भारत को लोकतांत्रिक और कल्याणकारी राज्य कहा जाता है, वहां सबका ‘कल्याण’ क्यों नहीं हो रहा है? सरकार यह क्यों नहीं सुनिश्चित कर रही है कि मेडिकल, इंजीनियरिंग आदि की प्रतियोगी परीक्षाओं में जितने भी विद्यार्थी सफल होंगे उनकी आगे की पढ़ाई का खर्चा सरकार उठाएगी? और नौकरी भी देगी। कहने को तो सरकार उच्च शिक्षा के लिए बच्चों को शिक्षा ऋण उपलब्ध कराती है। किन्तु शिक्षा ऋण देते समय बैंक वाले ऐसे-ऐसे नियम बताते हैं कि उनमें एक गरीब आदमी कहीं नहीं टिकता है। जिस बच्चे को शिक्षा ऋण दिया जाता है उसके माता-पिता की पासबुक देखी जाती है कि लेन-देन का क्या स्तर रहता है? घर-मकान देखा जाता है। प्रतिमाह की आय देखी जाती है। इसके बाद ही शिक्षा ऋण स्वीकृत होता है। इस हालत में एक गरीब के होनहार बच्चे को शिक्षा ऋण नहीं मिल पाता है। इस देश में कार लोन आसानी से मिल जाता है पर शिक्षा ऋण? और तो और कार लोन की ऋण दर शिक्षा ऋण से कंही सस्ती! यदि किसी गरीब का प्रतिभाशाली बच्चा पैसे के अभाव में डॉक्टर, इंजीनियर, आफिसर…. नहीं बन सकता है, तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
चिकित्सा भी इतनी महंगी है कि एक गरीब बीमार आदमी इलाज के अभाव में दम तोड़ रहा है। सरकारी अस्पतालों में भी तरह-तरह की जांच के नाम पर पैसा जमा कराया जाता है। निजी अस्पतालों की ओर तो गरीब आदमी आंख उठाकर देख भी नहीं सकता है। यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी है? देश के सबसे बड़े और प्रतिष्ठित अस्पताल एम्स, एम्स ही नहीं कई सरकारी संस्थान हैं अलग-अलग प्रदेशों में और हर राज्य से अमीर-गरीब हर तरह के लोग इलाज के लिए जाते हैं इन संस्थानो में। यहां कई ऐसी जांचें होती हैं, जिनके लिए मरीजों को पैसा जमा करना पड़ता है और वो भी अच्छी खासी रकम और तो और जांच के बाद इलाज के लिए भी एक मोटी रकम वसूला जाता है, गरीब से गरीब मरीज को भी कोई छूट नहीं मिलती है, किन्तु यहीं उन लोगों को इलाज के लिए कुछ नहीं देना पड़ता है, जो सरकार से मोटी तनख्वाह पाते हैं। यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी है?
महंगाई बढ़ती है, तो सरकारी अधिकारियों एवं कर्मचारियों और संगठित क्षेत्र में काम करने वालों को महंगाई भत्ता दिया जाता है। किन्तु मजदूरों, किसानों और इस तरह के अन्य लोगों को कोई महंगाई भत्ता नहीं मिलता है। ये लोग किस हालत में जीते हैं, इसकी भी सुध लेने वाला कोई नहीं है। इन मेहनतकशों के घर में चूल्हा जला है या नहीं? चूल्हा जलाने के लिए ईधन की व्यवस्था है या नहीं? दो वक्त की रोटी के लिए अन्न है या नहीं? सरकार भी कोई सुध नहीं ले रही है तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
देश मे अपराध मे दिन प्रतिदिन बढ़ोतरी हो रही, चाहे रेप के मामले हो या हत्या, चोरी, लूटमार अन्य की घटनाएं…. आज स्थिति ऐसी है की देश के अधिकतर नौजवान चोरी, डाका डाल रहें हैं रोजगार के अभाव में! चंद पैसे के लिए हत्या तक कर डाल रहें हैं…. अंग्रेजों ने जो भवन, पुल, स्मारक आदि बनवाए थे, वे आज भी शान के साथ मजबूती से खड़े हैं। किन्तु आजादी के बाद बने भवन या पुल जर्जर घोषित हो चुके हैं क्योंकि पहले के मुकाबले भ्रष्टाचार लगातार बढ़ता ही जा रहा है, ऐसा नहीं है के गोरे अंग्रेजों के समय में भ्रष्टाचार नहीं था तब भी था और आज भी है। पर पहले कम था और आज भ्रष्टाचार अपने चरम पर है। जो करोड़ों रु. से कोई फ्लाईओवर बनता है और 5-10-12 साल में ढह जाता है। जनता को लूटो, खुद की तिजोरी भरो और जनता पर एहसान जताओ। जिसमें लोग राष्ट्रहित से ज्यादा स्वहित को महत्व दे रहे हैं? चाहे नेता हों या अभिनेता, अमीर हों या गरीब, दुकानदार हों या ग्राहक, सभी अपने हित के लिए लड़-झगड़ रहे हैं, किन्तु कोई राष्ट्रहित के लिए नहीं लड़ रहा है। बस सभी के दिल में राष्ट्रवाद की घुट्टी भर देना है कि सारे जंहा से अच्छा, हिंदुस्तान हमारा! हम भूखे मर जाएं/हम भ्रष्टाचार में आकंठ डूबे हों/महंगाई से हालात बुरे हों/रोजगार ना हो फिर भी मेरा भारत महान! तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
नई पीढ़ी को शिक्षा तो ऐसी दी जा रही है कि वह काम करने वाली मशीन बनती जा रही है। देश की शिक्षा पर्णाली में सिर्फ देशभक्ति का पाठ पढ़ाया जाता है। निजी सम्पति के बढावे की सीख दी जाती है। इस कारण एक ऐसी पीढ़ी तैयार हो रही है, जिसमें संवेदनहीनता/धैर्यहीनता/एकाकीपन…. दिखने लगी है। कुछ बच्चे इतने असंवेदनशील हो रहे हैं कि उन्हें सिर्फ और सिर्फ अपनी सुविधाओं से मतलब है। घर में मां बीमार रहती है और ऐसे बच्चे उससे पूछते तक नहीं हैं कि मां तुम कैसी हो? हां, जब भूख लगेगी तो जोर-जोर से चिल्लाकर बीमार मां के कांपते हाथों को रोटी बनाने के लिए मजबूर कर देंगे। और तो और संयुक्त परिवार में रहना भी नहीं चाहेंगे। एकल परिवार की तरफ लगातार बढ़ते जा रहें हैं। हम एक ऐसे देश में जी रहे हैं जहां देश के बंटवारे को आजादी और देश बांटने वालों को देशभक्त कहा जाता है टुकड़े-टुकड़े करने वाले को शांतिदूत कहा जाता है तथा जाति-धर्म के नाम पर जनता को जनता से लड़ाने वालों को मसीहा, गुण्डों-माफियाओं को समाजसेवक कहा जाता है और यही समाजसेवक मेहनतकश जनता को आपस में लड़ाती है। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
करोड़ों मेहनतकशों को भूख और गरीबी में रख कर। उनकी आवाज़ को पुलिस के बूटों तले दबा कर लाई गयी खामोशी को हम कब तक शान्ति मानते रहेंगे? इस देश के शासक वर्ग ने इस देश की आज़ादी के वक्त वादा किया था कि गरीब की हालत सुधारी जायेगी! गरीबी खत्म की जाएगी। गरीबी तो छोड़िए गरीबों को ही खत्म कर रहें हैं और गाँव वालों की ज़मीने छीनने के लिए सेना-पुलिस को ही भेज रहे हैं तो आप ही बताएं कि यह किसकी सरकार है? ये आजदी किनकी है?अगर आजादी से पहले गोरे पूंजीपतियों के लिए गोरी पुलिस द्वारा जमीन छीना जाता था और अब हमारे अपने देश के विकास के लिए हमारे ही देश के मेहनतकश जनता पर हमारी अपनी ही पुलिस हमला कर रही हो तो क्या ये मेहनतकश की आज़ादी है? हमने आज़ादी के बाद कौन सा विकास का काम बिना पुलिस के डंडे की मदद से किया है? तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
कल को जब यही लोग गाँव से उजड़ कर मजदूरी करने शहर में आ जाते हैं तब हम यहाँ भी उनकी बस्ती पर बुलडोज़र चलाते हैं। उनकी ज़मीने छीन कर बनाए कारखाने में काम करने जब यह लोग मजदूरी करते हैं और पूरी मजदूरी मांगते हैं तो हमारी लोकतंत्र की आजाद जनता की आजाद पुलिस मेहनतकश मजदूरों को पीटती है। ये कैसी पुलिस है? और किसकी पुलिस है? जो कभी गरीब की तरफ होती ही नहीं? ये कैसी अदालत है जो कभी भी गरीबों की रुदाली दिखाई देती नहीं। कभी किसी रिक्शेवाले से सुना है कि तुम्हे अदालत में देख लेंगे। चमचमाती चारपहिया गाड़ी से उतरने वाला ही धमकी देता है कि तुम्हें अदालत में देख लेंगे। ये कैसी सरकार है जो हमेशा अमीर की ही तरफ रहती है। ये कैसी आजादी है? जहां देश के बहुसंख्यक जनता को ही सताया जा रहा है। और ये कैसा समाज है जो खुद को सभ्य कहता है पर जिसे यह सब दिखता ही नहीं है। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
आखिर में रही-सही कसर भ्रष्टाचारियों और वोट बैंक की राजनीति ने पूरी कर दी है। गोरे अंग्रेजों के जाने के बाद इस देश को काले अंग्रेज जम कर लूट रहे हैं। लूट का पैसा विदेशी बैंकों में जमा कर रहे हैं। फूट डालो और राज करो’ की नीति पर चलकर भारत की जनता को एक ही जाति के अन्दर उपजाति में ही लड़ाकर अपनी रोटी सेंक रहें हैं, साथ ही धर्म/रंग/छेत्र/भाषा/लिंग…. में बांटकर अपनी रोटी सेंक रंहे हैं और ये सारी कवायद वोट की राजनीति के लिए कर रहें हैं, जिस तरह व्यापार के लिए लोग पोल्ट्री फॉर्म चलाते हैं, वैसे यहां के राजनीतिक दल वोटरों को पालने के लिए ऐसी योजनाएं चला रहे हैं, ये मेहनतकश जनता पोल्ट्री फार्म के मुर्गे से ज्यादा मायने नहीं रखती है शासक वर्ग के लिए! 17-18 रुपए किलो का अनाज खरीदकर लोगों को 3 रुपए किलो में और फिलहाल तो मुफ्त में इसलिए दे रही है, ताकि वे जिंदा रहकर सरकार के गुण गा सकें और जिंदा रहने को ही विकास मान लें और इसीको आजादी मानकर सरकार को वोट दे कर लोकतंत्र को महान बना देते हैं। शासकवर्ग का काम वोट लेना और मेहनतकश जनता यानी शोषित/उत्पीड़ित जनता वोट देना बस मात्र यही एक काम है इस लोकतंत्र में। जनता से कोई लेना-देना नहीं। उनके लिए तो जनता की उस पोल्ट्री फार्म के मुर्गे से ज्यादा अहमियत नहीं है। उस मुर्गे को जिंदा रहने और अपने मुनाफे के लिए दाना-पानी देते रहो, वैक्सीन और इलाज करते रहो और फिर डेढ़ दो महीने बाद उस मुर्गे को मुनाफे पर बेंच देते हैं उसी तरह जनता को हर पांच साल पर वोट देने के लिए, जीवित रखने के लिए मुफ्त का राशन देती है, उधोगपतियो को मुनाफा पहुंचाने के लिए वैक्सीन भी जनता को मुफ्त में लगवाती है अब जनता को लगता है कि देखो सरकार कितनी दयालू है, मुफ्त में वैक्सीन दे रही है पर ये नहीं सोचती कि इस वैक्सीन की कीमत सरकारी खजाने से निकाल कर उद्योगपति को दे चुकी है और जो पैसा दिया गया है वो जनता का ही है तो फिर काहे का एहसान। पर इसी एहसान का ही तो पूरा खेल है और इसी एहसान के बदले सरकार से कोई सवाल नहीं करते। और उधर सरकार अपने और अपने पूंजीवादी आकाओं के मुनाफे लिए ऐसे ही मार दे रही है जैसे आज मार रही है। इनकी नीतियों से देश भले ही कमजोर हो जाए, खंड-खंड हो जाए, पर इनका वोट और नोट का बैंक लबालब भरा रहे। यही इनकी नीति है। मजहब के नाम पर सरकारी नीतियां बनाई जा रही हैं। जो जनता नहीं मांग रही है वो जबरदस्ती दी जा रही है जैसे आरक्षण, आरक्षण किसी ने नहीं मांगा, मांग तो रोजगार की है पर इस व्यवस्था में रोजगार ना होने के कारण लोगों को आपस में लड़ाने के लिए आरक्षण दिए जा रहें हैं। आज आरक्षण की ये स्थिती हो गयी है कि आरक्षण खत्म करेंगे नहीं और नौकरी देंगे नहीं बस आरक्षण का लड्डू दिखाकर ललचवाए हुवे हैं। 100 नौकरियां थी 99 खत्म कर दीं, 99 खत्म हूई नौकरी पर सरकार से कोई लड़ाई नहीं बस एक बची हूई नौकरी पर आरक्षण समर्थक और आरक्षण विरोधी उसी एक नौकरी पर ही आपस में लड़कर शासक वर्ग का काम आसान बना दे रहें हैं। इसी तरह वो जनता को लड़ाते हैं। शाराब किसी ने डिमांड नहीं की फिर भी दिए जा रहें हैं, गंदी फिल्मे/मैगजीन किसी ने नहीं मांगी फिर भी दिए जा रहें हैं इसी तरह बाजार में सैकड़ो सामान बगैर किसी जनता के डिमांड के अपने प्रचार माध्यम से परोस रहें हैं। अपने हिसाब से एक सामान तक नहीं खरीद सकते तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
इस आजादी की खूबी भी देखें कि जहां अमीर लोग अपने ही देश के गाँव में रहने वालों की ज़मीने छीनने के लिए चुनी हुई सरकार की सहायता से आजाद भारत की आजाद सेना, पुलिस भेजते हैं। और जब ये मेहनतकश वर्ग विरोध करते हैं तो इन्हीं सेना पुलिस के जरिए लाठी और गोली चलवाते हैं। ये है भारत के लोकतंत्र और आजादी की खूबी। अब इस कोरोना काल में देखें कि चुनाव रैली में भीड़ लगाने पर कोई पाबंदी नहीं पर वंही जंहा चुनाव खत्म वैसे ही दो वक्त की रोटी के लिए कोई दुकानदार दुकान खोलकर कुछ बेँचता है तो ₹10000/- का जुर्माना और साथ लाठी मुफ्त में इन्ही आजाद पुलिस वालों के जरिए। जितनी बचत वो महीने भर में करता है वो एक झटके में वसूल लेता है कानून के नाम पर। पर वो दुकानदार इस पर भी रिस्क लेता है जुर्माना और लाठी खाने का क्योंकि पेट का सवाल है और इसी पेट की रोटी के लिए दुकान के बाहर खड़ा रहता है कि कोई ग्राहक आए तो शटर उठा के सामान देने के लिए। और बेचारा मजदूर जो डेली दिहाड़ी करके खाता है उसके पेट के लिए तो सारे रास्ते बन्द। वो मजदूर दो वक्त की रोटी की व्यवस्था कर पाता होगा या नहीं सोच कर रूह कांप जाती है। क्या यही है भारत की आजादी की खूबी? यही मुट्ठीभर लोग सेना, पुलिस द्वारा आदिवासियों की जमीने हड़प रहें हैं। उनके जंगलो से खनन कर लौह अयस्क और अन्य खनिज पदार्थ निकालकर बदस्तूर लूट कर रहें हैं, जिसके लिए उन्ही के जंगलों से आदिवासियों को बेदखल कर रहें हैं, विरोध करने पर सेना पुलिस से लाठियां दी जा रहीं हैं, महिलाओं/बच्चियों से बलात्कार कर रहें हैं, नक्सली/मावोवादी घोषित कर जेल में डाल दे रहें हैं, गोली तक मार दे रहें हैं। इसी तरह से जो भी लोग सत्ता और कारपोरेट के अन्याय, शोषण के खिलाफ लिख रहे या बोल रहे उन्हें नक्सली, देशद्रोही, मुल्ले, पाकिस्तानी कह कर या तो हत्या की जा रही या फिर जेल मे डाला जा रहा है। तो फिर यह कैसी आजादी है? किसकी आजादी?
यह कैसे शिक्षित और सभ्य लोग हैं जिनके लिए क्रिकेट और फ़िल्मी हीरो हीरोइनों की शादी ज्यादा महत्वपूर्ण है। ये देश की कैसी मीडिया है जो आई पी एल जैसे क्रिकेट मैच पर चर्चा करना ज्यादा महत्वपूर्ण है पर देश में रोजगार, महंगाई, भ्रष्टाचार, सूदखोरी…. पर चर्चा करना कतई महत्वपूर्ण नहीं है और तो और अमिताभ बच्चन के बीमार होने पर खबर दिखाना कि अमिताभ ने आज खाना खाया कि नहीं, आज रात ठीक से नींद आयी की नहीं, शिल्पा शेट्टी ने आज अपने बगीचे में बैगन उगाया, विराट कोहली के कुत्ते की तबीयत खराब होने तक की खबर दिखाता है ये मीडिया पर देश में चारों ओर फैले अन्याय की तरफ दिखाने की हिम्मत तक नहीं और हमें भी देखने की भी ज़रूरत ही महसूस नहीं हो रही है! ऐसे में हमें क्या लगता है? सब कुछ ऐसे ही चलता रहेगा? माफ़ कीजिये कुछ लोग उधर कुछ कानाफूसियाँ कर रहे हैं। कुछ लोग लड़ने और कुछ बदलने की बात कर रहे हैं। अब ये आप के ऊपर है की आप इस सब को प्रेम से बदलने के लिए तैयार हो जायेंगे या फिर इंतज़ार करेंगे की लोग खुद ज़बरदस्ती से इसे बदलें? लेकिन एक बात तो बिलकुल साफ़ है! आप को शायद किसी बदलाव की कोई ज़रुरत ना हो क्योंकि आप मज़े में हैं। पर जो तकलीफ में है वह इस हालत को बदलने के लिए ज़रूर बेचैन है। दब जाने पर चींटी भी मुड़कर काट लेती है। देखना है जनता कब तक चींटी से भी बदतर बनी रहेगी.....
उतरे हुए चेहरों तुम्हें आज़ादी मुबारक
उजड़े हुए लोगों तुम्हें आज़ादी मुबारक
सहमी हुई गलियों कोई मेला कोई नारा
जकड़े हुए शहरों तुम्हें आज़ादी मुबारक
ज़ंजीर की छन-छन पे कोई रक़्सो तमाशा
नारों के ग़ुलामों तुम्हें आज़ादी मुबारक
अब ख़ुश हो? कि हर दिल में हैं नफ़रत के अलाव
ऐ दीन फ़रोशों(धर्म बेचने वालों) तुम्हें आज़ादी मुबारक
बहती हुई आँखों ज़रा इज़हारे मसर्रत(प्रसन्नता)
रिसते हुए ज़ख़्मों तुम्हें आज़ादी मुबारक
उखड़ी हुई नींदों मेरी छाती से लगो आज
झुलसे हुए ख़्वाबों तुम्हें आज़ादी मुबारक
टूटे हुए ख़्वाबों को खिलोने ही समझ लो
रोते हुए बच्चों तुम्हें आज़ादी मुबारक
फैले हुए हाथों इसी मंज़िल की तलब थी?
सिमटी हुई बाहों तुम्हें आज़ादी मुबारक
हर ज़ुल्म पे ख़ामोशी की तसबीह में लग जाओ
चलती हुई लाशों तुम्हें आज़ादी मुबारक
मसलक के, ज़बानों के, इलाक़ों के असीरों(क़ैदियों)
बिखरे हुए लोगों तुम्हें आज़ादी मुबारक
ऐ काश लिपट के उन्हें हम भी कभी कहते
कश्मीर के लोगों तुम्हें आज़ादी मुबारक
लोगों के मन में भर दिया, धर्म को लेके एक दूसरे के प्रति नफरत
ये सांप्रदायिक जहर फैलाने वाली आजादी तुम्हें मुबारक
ये कैसी आजादी है, किसकी आजादी है
ऐ कहने वाली तथाकथित आजादी तुम्हें मुबारक
चलने के लिए खोल खोल दी पैरों से बेड़िया
मगर कर दिए चारो तरफ खाई और गड्ढे, आजादी तुम्हें मुबारक
महंगाई से है बुरा हाल, रोजगार की नहीं कोई बात
कुछ ना कुछ मिलने वाली आजादी तुम्हें मुबारक
ना सर पर छत, ना खाने को भोजन
ऐ भारत के लोगों ये झूटी आजादी तुम्हें मुबारक
यह मूल कविता पाकिस्तान के मशहूर युवा शायर अहमद फरहाद की है, जिसे कल 14अगस्त को पाकिस्तानी स्वतँत्रा दिवस पर लिखा था। इसको एडिट करने के बाद शेयर कर रहां हूँ।
*अजय असुर*
*राष्ट्रीय जनवादी मोर्चा उ. प्र.*
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9. *कैसा है यह लोकतंत्र और यह संविधान किनकी सेवा करता है?*
✍ आलोक रंजन, आनंद सिंह
📱 http://www.mazdoorbigul.net/archives/9627
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जिस देश में मात्र 1 प्रतिशत लोग समाज की 73 प्रतिशत से भी अधिक सम्पदा पर क़ब्ज़ा जमाकर बैठे हों, जहाँ कड़कड़ाती ठंड में भी 18 करोड़ से भी ज़्यादा लोग फुटपाथ पर सोने को मजबूर हों, जहाँ गणतंत्र दिवस और स्वतंत्रता दिवस के दिन देश के हर शहर में बच्चों द्वारा अपना पेट भरने के लिए देश का झंडा बेचना आम बात हो उसमें शासक वर्गों द्वारा प्रायोजित सैन्य ताक़त के अश्लील प्रदर्शन में शामिल होने बजाय *बेहतर यह होगा कि हम इस तथाकथित लोकतंत्र और उसकी 'पवित्र पुस्तक' संविधान के निर्माण की प्रक्रिया को समझें और जानें कि इसका वर्तमान जनविरोधी चरित्र कोई विचलन नहीं है, बल्कि यह इसके जन्मकाल से ही इसकी अभिलाक्षणिकता रही है।*
आज यह बुनियादी सवाल उठाये जाने की जरूरत है कि हम जिस सम्प्रभु, समाजवादी जनवादी (लोकतान्त्रिक) गणराज्य में जी रहे हैं, वह वास्तव में कितना सम्प्रभु है, कितना समाजवादी है और कितना जनवादी है?
*पिछले सत्तर वर्षों के दौरान आम भारतीय नागरिक को कितने जनवादी अधिकार हासिल हुए हैं? हमारा संविधान आम जनता को किस हद तक नागरिक और जनवादी अधिकार देता है और किस हद तक, किन रूपों में उनकी हिफाजत की गारण्टी देता है? संविधान में उल्लिखित मूलभूत अधिकार अमल में किस हद तक प्रभावी हैं? संविधान में उल्लिखित नीति-निर्देशक सिध्दान्तों से राज्य क्या वास्तव में निर्देशित होता है?* ये सभी प्रश्न एक विस्तृत चर्चा की माँग करते हैं। इस पुस्तक में हम थोड़े में संविधान के चरित्र और भारत के जनवादी गणराज्य की असलियत को जानने के लिए कुछ प्रातिनिधिक तथ्यों के जरिये एक तस्वीर उपस्थित करने की कोशिश करेंगे।
*किसी भी चीज के चरित्र को संक्षेप में, सही-सटीक तरीके से समझने के लिए, ऊपरी टीमटाम और लप्पे-टप्पे को भेदकर उसके अन्दर की सच्चाई को जानने का सबसे उचित-सटीक तरीका यह होता है कि हम उस चीज के जन्म, विकास और आचरण की ऐतिहासिक प्रक्रिया की पड़ताल करें। यही पहुँच और पध्दति अपनाकर हम सबसे पहले भारतीय संविधान के निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि से चर्चा की शुरुआत कर रहे हैं। इसके बाद हम संविधान सभा के गठन और संविधान-निर्माण की प्रक्रिया पर चर्चा करेंगे।* इसके बाद इसके चरित्र-विश्लेषण और भारतीय गणराज्य के चाल-चेहरा-चरित्र को जानने-समझने की बारी आयेगी।
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औपनिवेशिक भारत में संविधान-निर्माण की ऐतिहासिक पृष्ठभूमि, इसकी निर्माण-प्रक्रिया, इसके चरित्र और भारतीय बुर्जुआ जनवादी गणराज्य की वर्ग-अन्तर्वस्तु, इसके अति सीमित बुर्जुआ जनवाद और निरंकुश तानाशाही के ख़तरों के बारे में एक विचारोत्तेजक, शोधपूर्ण, आँखें खोल देने वाली इस पुस्तक को ज़रूर पढ़ें:
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10. गणतंत्र दिवस पर "नागार्जुन" की एक कविता
किसकी है जनवरी,
किसका अगस्त है?
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है?
सेठ है, शोषक है, नामी गला-काटू है
गालियाँ भी सुनता है, भारी थूक-चाटू है
चोर है, डाकू है, झुठा-मक्कार है
कातिल है, छलिया है, लुच्चा-लबार है
जैसे भी टिकट मिला
जहाँ भी टिकट मिला
शासन के घोड़े पर वह भी सवार है
उसी की जनवरी छब्बीस
उसी का पन्द्रह अगस्त है
बाक़ी सब दुखी है, बाक़ी सब पस्त है…..
कौन है खिला-खिला, बुझा-बुझा कौन है
कौन है बुलन्द आज, कौन आज मस्त है?
खिला-खिला सेठ है, श्रमिक है बुझा-बुझा
मालिक बुलन्द है, कुली-मजूर पस्त है
सेठ यहाँ सुखी है, सेठ यहाँ मस्त है
उसकी है जनवरी, उसी का अगस्त है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
फ्रिज है, सोफ़ा है, बिजली का झाड़ है
फै़शन की ओट है, सब कुछ उघाड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मास्टर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो, गिन लो जी, गिन लो
मज़दूर की छाती में कै ठो हाड़ है!
गिन लो जी, गिन लो जी, गिन लो
बच्चे की छाती में कै ठो हाड़ है!
देख लो जी, देख लो जी, देख लो
पब्लिक की पीठ पर बजट पर पहाड़ है!
मेला है, ठेला है, भारी भीड़-भाड़ है
पटना है, दिल्ली है, वहीं सब जुगाड़ है
फ़्रिज है, सोफ़ा है, बिजली का झाड़ है
महल आबाद है, झोपड़ी उजाड़ है
ग़रीबों की बस्ती में
उखाड़ है, पछाड़ है
धत तेरी, धत तेरी, कुच्छो नहीं! कुच्छो नहीं
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
ताड़ के पत्ते हैं, पत्तों के पंखे हैं
पंखों की ओट है, पंखों की आड़ है
कुच्छो नहीं, कुच्छो नहीं…..
ताड़ का तिल है, तिल का ताड़ है
पब्लिक की पीठ पर बजट का पहाड़ है
किसकी है जनवरी, किसका अगस्त है!
कौन यहाँ सुखी है, कौन यहाँ मस्त है!
सेठ ही सुखी है, सेठ ही मस्त है
मन्त्री ही सुखी है, मन्त्री ही मस्त है
उसी की है जनवरी, उसी का अगस्त है।
11. लोकतंत्र के संदर्भ में अशोक चक्रधर की कविता
डैमोक्रैसी / अशोक चक्रधर
पार्क के कोने में
घास के बिछौने पर लेटे-लेटे
हम अपनी प्रेयसी से पूछ बैठे—
क्यों डियर !
डैमोक्रैसी क्या होती है ?
वो बोली—
तुम्हारे वादों जैसी होती है !
इंतज़ार में
बहुत तड़पाती है,
झूठ बोलती है
सताती है,
तुम तो आ भी जाते हो,
ये कभी नहीं आती है !
एक विद्वान से पूछा
वे बोले—
हमने राजनीति-शास्त्र
सारा पढ़ मारा,
डैमोक्रैसी का मतलब है—
आज़ादी, समानता और भाईचारा।
आज़ादी का मतलब
रामनाम की लूट है,
इसमें गधे और घास
दोनों को बराबर की छूट है।
घास आज़ाद है कि
चाहे जितनी बढ़े,
और गदहे स्वतंत्र हैं कि
लेटे-लेटे या खड़े-खड़े
कुछ भी करें,
जितना चाहें इस घास को चरें।
और समानता !
कौन है जो इसे नहीं मानता ?
हमारे यहां—
ग़रीबों और ग़रीबों में समानता है,
अमीरों और अमीरों में समानता है,
मंत्रियों और मंत्रियों में समानता है,
संत्रियों और संत्रियों में समानता है।
चोरी, डकैती, सेंधमारी, बटमारी
राहज़नी, आगज़नी, घूसख़ोरी, जेबकतरी
इन सबमें समानता है।
बताइए कहां असमानता है ?
और भाईचारा !
तो सुनो भाई !
यहां हर कोई
एक-दूसरे के आगे
चारा डालकर
भाईचारा बढ़ा रहा है।
जिसके पास
डालने को चारा नहीं है
उसका किसी से
भाईचारा नहीं है।
और अगर वो बेचारा है
तो इसका हमारे पास
कोई चारा नहीं है।
फिर हमने अपने
एक जेलर मित्र से पूछा—
आप ही बताइए मिस्टर नेगी।
वो बोले—
डैमोक्रैसी ?
आजकल ज़मानत पर रिहा है,
कल सींखचों के अंदर दिखाई देगी।
अंत में मिले हमारे मुसद्दीलाल,
उनसे भी कर डाला यही सवाल।
बोले—
डैमोक्रैसी ?
दफ़्तर के अफ़सर से लेकर
घर की अपसरा तक
पड़ती हुई फ़टकार है !
ज़बानों के कोड़ों की मार है
चीत्कार है, हाहाकार है।
इसमें लात की मार से कहीं तगड़ी
हालात की मार है।
अब मैं किसी से
ये नहीं कहता
कि मेरी ऐसी-तैसी हो गई है,
कहता हूं—
मेरी डैमोक्रैसी हो गई है !
12. ठिठुरता हुआ गणतंत्र -हरिशंकर परसाई
चार बार मैं गणतंत्र-दिवस का जलसा दिल्ली में देख चुका हूँ। पाँचवीं बार देखने का साहस नहीं। आखिर यह क्या बात है कि हर बार जब मैं गणतंत्र-समारोह देखता, तब मौसम बड़ा क्रूर रहता। छब्बीस जनवरी के पहले ऊपर बर्फ पड़ जाती है। शीत-लहर आती है, बादल छा जाते हैं, बूँदाबाँदी होती है और सूर्य छिप जाता है। जैसे दिल्ली की अपनी कोई अर्थनीति नहीं है, वैसे ही अपना मौसम भी नहीं है। अर्थनीति जैसे डॉलर, पौंड, रुपया, अंतरराष्ट्रीय मुद्रा-कोष या भारत सहायता क्लब से तय होती है, वैसे ही दिल्ली का मौसम कश्मीर, सिक्किम, राजस्थान आदि तय करते हैं। इतना बेवकूफ भी नहीं कि मान लूँ, जिस साल मैं समारोह देखता हूँ, उसी साल ऐसा मौसम रहता है। हर साल देखने वाले बताते हैं कि हर गणतंत्र-दिवस पर मौसम ऐसा ही धूपहीन ठिठुरनवाला होता है। आखिर बात क्या है? रहस्य क्या है? जब कांग्रेस टूटी नहीं थी, तब मैंने एक कांग्रेस मंत्री से पूछा था कि यह क्या बात है कि हर गणतंत्र-दिवस को सूर्य छिपा रहता है? सूर्य की किरणों के तले हम उत्सव क्यों नहीं मना सकते? उन्होंने कहा - जरा धीरज रखिए। हम कोशिश में हैं कि सूर्य बाहर आ जाए। पर इतने बड़े सूर्य को बाहर निकालना आसान नहीं हैं। वक्त लगेगा। हमें सत्ता के कम से कम सौ वर्ष तो दीजिए। दिए। सूर्य को बाहर निकालने के लिए सौ वर्ष दिए, मगर हर साल उसका छोटा-मोटा कोना तो निकलता दिखना चाहिए। सूर्य कोई बच्चा तो है नहीं जो अंतरिक्ष की कोख में अटका है, जिसे आप आपरेशन करके एक दिन में निकाल देंगे। इधर जब कांग्रेस के दो हिस्से हो गए तब मैंने एक इंडिकेटी कांग्रेस से पूछा। उसने कहा - ‘हम हर बार सूर्य को बादलों से बाहर निकालने की कोशिश करते थे, पर हर बार सिंडीकेट वाले अड़ंगा डाल देते थे। अब हम वादा करते हैं कि अगले गणतंत्र दिवस पर सूर्य को निकालकर बताएँगे। एक सिंडीकेटी पास खड़ा सुन रहा था। वह बोल पड़ा - ‘यह लेडी (प्रधानमंत्री) कम्युनिस्टों के चक्कर में आ गई है। वही उसे उकसा रहे हैं कि सूर्य को निकालो। उन्हें उम्मीद है कि बादलों के पीछे से उनका प्यारा ‘लाल सूरज’ निकलेगा। हम कहते हैं कि सूर्य को निकालने की क्या जरूरत है? क्या बादलों को हटाने से काम नहीं चल सकता? मैं संसोपाई भाई से पूछ्ता हूँ। वह कहता है - ‘सूर्य गैर-कांग्रेसवाद पर अमल कर रहा है। उसने डाक्टर लोहिया के कहने पर हमारा पार्टी-फार्म दिया था। कांग्रेसी प्रधानमंत्री को सलामी लेते वह कैसे देख सकता है? किसी गैर-काँग्रेसी को प्रधानमंत्री बना दो, तो सूर्य क्या, उसके अच्छे भी निकल पड़ेंगे। जनसंघी भाई से भी पूछा। उसने कहा - ‘सूर्य सेक्युलर होता तो इस सरकार की परेड में निकल आता। इस सरकार से आशा मत करो कि भगवान अंशुमाली को निकाल सकेगी। हमारे राज्य में ही सूर्य निकलेगा। साम्यवादी ने मुझसे साफ कहा - ‘यह सब सी.आई.ए. का षडयंत्र है। सातवें बेड़े से बादल दिल्ली भेजे जाते हैं।’ स्वतंत्र पार्टी के नेता ने कहा - ‘रूस का पिछलग्गू बनने का और क्या नतीजा होगा? प्रसोपा भाई ने अनमने ढंग से कहा - ‘सवाल पेचीदा है। नेशनल कौंसिल की अगली बैठक में इसका फैसला होगा। तब बताऊँगा।’ राजाजी से मैं मिल न सका। मिलता, तो वह इसके सिवा क्या कहते कि इस राज में तारे निकलते हैं, यही गनीमत है।’ मैं इंतजार करूँगा, जब भी सूर्य निकले। स्वतंत्रता-दिवस भी तो भरी बरसात में होता है। अंग्रेज बहुत चालाक हैं। भरी बरसात में स्वतंत्र करके चले गए। उस कपटी प्रेमी की तरह भागे, जो प्रेमिका का छाता भी ले जाए। वह बेचारी भीगती बस-स्टैंड जाती है, तो उसे प्रेमी की नहीं, छाता-चोर की याद सताती है। स्वतंत्रता-दिवस भीगता है और गणतंत्र-दिवस ठिठुरता है। मैं ओवरकोट में हाथ डाले परेड देखता हूँ। प्रधानमंत्री किसी विदेशी मेहमान के साथ खुली गाड़ी में निकलती हैं। रेडियो टिप्पणीकार कहता है - ‘घोर करतल-ध्वनि हो रही है।’ मैं देख रहा हूँ, नहीं हो रही है। हम सब तो कोट में हाथ डाले बैठे हैं। बाहर निकालने का जी नहीं हो रहा है। हाथ अकड़ जाएँगे। लेकिन हम नहीं बजा रहे हैं, फिर भी तालियाँ बज रहीं हैं। मैदान में जमीन पर बैठे वे लोग बजा रहे हैं, जिनके पास हाथ गरमाने के लिए कोट नहीं है। लगता है, गणतंत्र ठिठुरते हुए हाथों की तालियों पर टिका है। गणतंत्र को उन्हीं हाथों की ताली मिलतीं हैं, जिनके मालिक के पास हाथ छिपाने के लिए गर्म कपड़ा नहीं है। पर कुछ लोग कहते हैं - ‘गरीबी मिटनी चाहिए।’ तभी दूसरे कहते हैं - ‘ऐसा कहने वाले प्रजातंत्र के लिए खतरा पैदा कर रहे हैं।’ गणतंत्र-समारोह में हर राज्य की झाँकी निकलती है। ये अपने राज्य का सही प्रतिनिधित्व नहीं करतीं। ‘सत्यमेव जयते’ हमारा मोटो है मगर झाँकियाँ झूठ बोलती हैं। इनमें विकास-कार्य, जनजीवन इतिहास आदि रहते हैं। असल में हर राज्य को उस विशिष्ट बात को यहाँ प्रदर्शित करना चाहिए जिसके कारण पिछले साल वह राज्य मशहूर हुआ। गुजरात की झाँकी में इस साल दंगे का दृश्य होना चाहिए, जलता हुआ घर और आग में झोंके जाते बच्चे। पिछले साल मैंने उम्मीद की थी कि आंध्र की झाँकी में हरिजन जलते हुए दिखाए जाएँगे। मगर ऐसा नहीं दिखा। यह कितना बड़ा झूठ है कि कोई राज्य दंगे के कारण अंतरराष्ट्रीय ख्याति पाए, लेकिन झाँकी सजाए लघु उद्योगों की। दंगे से अच्छा गृह-उद्योग तो इस देश में दूसरा है नहीं। मेरे मध्यप्रदेश ने दो साल पहले सत्य के नजदीक पहुँचने की कोशिश की थी। झाँकी में अकाल-राहत कार्य बतलाए गए थे। पर सत्य अधूरा रह गया था। मध्यप्रदेश उस साल राहत कार्यों के कारण नहीं, राहत-कार्यों में घपले के कारण मशहूर हुआ था। मेरा सुझाव माना जाता तो मैं झाँकी में झूठे मास्टर रोल भरते दिखाता, चुकारा करनेवाले का अँगूठा हजारों मूर्खों के नाम के आगे लगवाता। नेता, अफसर, ठेकेदारों के बीच लेन-देन का दृश्य दिखाता। उस झाँकी में वह बात नहीं आई। पिछले साल स्कूलों के ‘टाट-पट्टी कांड’ से हमारा राज्य मशहूर हुआ। मैं पिछले साल की झाँकी में यह दृश्य दिखाता - ‘मंत्री, अफसर वगैरह खड़े हैं और टाट-पट्टी खा रहे हैं। जो हाल झाँकियों का, वही घोषणाओं का। हर साल घोषणा की जाती है कि समाजवाद आ रहा है। पर अभी तक नहीं आया। कहाँ अटक गया? लगभग सभी दल समाजवाद लाने का दावा कर रहे हैं, लेकिन वह नहीं आ रहा। मैं एक सपना देखता हूँ। समाजवाद आ गया है और वह बस्ती के बाहर टीले पर खड़ा है। बस्ती के लोग आरती सजाकर उसका स्वागत करने को तैयार खड़े हैं। पर टीले को घेरे खड़े हैं कई समाजवादी। उनमें से हरेक लोगों से कहकर आया है कि समाजवाद को हाथ पकड़कर मैं ही लाऊँगा। समाजवाद टीले से चिल्लाता है - ‘मुझे बस्ती में ले चलो।’ मगर टीले को घेरे समाजवादी कहते हैं - ‘पहले यह तय होगा कि कौन तेरा हाथ पकड़कर ले जाएगा।’ समाजवाद की घेराबंदी है। संसोपा-प्रसोपावाले जनतांत्रिक समाजवादी हैं, पीपुल्स डेमोक्रेसी और नेशनल डेमोक्रेसीवाले समाजवादी हैं। क्रांतिकारी समाजवादी हैं। हरेक समाजवाद का हाथ पकड़कर उसे बस्ती में ले जाकर लोगों से कहना चाहता है - ‘लो, मैं समाजवाद ले आया।’ समाजवाद परेशान है। उधर जनता भी परेशान है। समाजवाद आने को तैयार खड़ा है, मगर समाजवादियों में आपस में धौल-धप्पा हो रहा है। समाजवाद एक तरफ उतरना चाहता है कि उस पर पत्थर पड़ने लगते हैं। ‘खबरदार, उधर से मत जाना!’ एक समाजवादी उसका एक हाथ पकड़ता है, तो दूसरा हाथ पकड़कर खींचता है। तब बाकी समाजवादी छीना-झपटी करके हाथ छुड़ा देते हैं। लहू-लुहान समाजवाद टीले पर खड़ा है। इस देश में जो जिसके लिए प्रतिबद्ध है, वही उसे नष्ट कर रहा है। लेखकीय स्वतंत्रता के लिए प्रतिबद्ध लोग ही लेखक की स्वतंत्रता छीन रहे हैं। सहकारिता के लिए प्रतिबद्ध इस आंदोलन के लोग ही सहकारिता को नष्ट कर रहे हैं। सहकारिता तो एक स्पिरिट है। सब मिलकर सहकारितापूर्वक खाने लगते हैं और आंदोलन को नष्ट कर देते हैं। समाजवाद को समाजवादी ही रोके हुए हैं। यों प्रधानमंत्री ने घोषणा कर दी है कि अब समाजवाद आ ही रहा है। मैं एक कल्पना कर रहा हूँ। दिल्ली में फरमान जारी हो जाएगा - ‘समाजवाद सारे देश के दौरे पर निकल रहा है। उसे सब जगह पहुँचाया जाए। उसके स्वागत और सुरक्षा का पूरा बंदोबस्त किया जाए। एक सचिव दूसरे सचिव से कहेगा - ‘लो, ये एक और वी.आई.पी. आ रहे हैं। अब इनका इंतजाम करो। नाक में दम है।’ कलेक्टरों को हुक्म चला जाएगा। कलेक्टर एस.डी.ओ. को लिखेगा, एस.डी.ओ. तहसीलदार को। पुलिस-दफ्तरों में फरमान पहुँचेंगे, समाजवाद की सुरक्षा की तैयारी करो। दफ्तरों में बड़े बाबू छोटे बाबू से कहेंगे - ‘काहे हो तिवारी बाबू, एक कोई समाजवाद वाला कागज आया था न! जरा निकालो!’ तिवारी बाबू कागज निकालकर देंगे। बड़े बाबू फिर से कहेंगे - ‘अरे वह समाजवाद तो परसों ही निकल गया। कोई लेने नहीं गया स्टेशन। तिवारी बाबू, तुम कागज दबाकर रख लेते हो। बड़ी खराब आदत है तुम्हारी।’ तमाम अफसर लोग चीफ-सेक्रेटरी से कहेंगे - ‘सर, समाजवाद बाद में नहीं आ सकता? बात यह है कि हम उसकी सुरक्षा का इंतजाम नहीं कर सकेंगे। पूरा फोर्स दंगे से निपटने में लगा है।’ मुख्य सचिव दिल्ली लिख देगा - ‘हम समाजवाद की सुरक्षा का इंतजाम करने में असमर्थ हैं। उसका आना अभी मुल्तवी किया जाए।’ जिस शासन-व्यवस्था में समाजवाद के आगमन के कागज दब जाएँ और जो उसकी सुरक्षा की व्यवस्था न करे, उसके भरोसे समाजवाद लाना है तो ले आओ। मुझे खास ऐतराज भी नहीं है। जनता के द्वारा न आकर अगर समाजवाद दफ्तरों के द्वारा आ गया तो एक ऐतिहासिक घटना हो जाएगी।
13. 'ठिठुरता हुआ गणतंत्र' का पाठ का लिंक
परसाई जी की इस कालजयी रचना का दो साल पहले Firstpost के लिए पाठ किया था. लगा कुछ अलग किया है, सो 'गणतंत्र दिवस' आते ही आपको दिखाने लगता हूँ. लीजिए एक बार फिर…
14 . *2023 के गणतंत्र दिवस की पूर्व संध्या पर - विजय दलाल
मुझे हरीशंकर परसाईं जी का वह "ठिठुरता हुआ गणतंत्र" शीर्षक से व्यंग्य याद आ रहा है।*
*ऑक्सफेम की रिपोर्ट है किसी समाजवादी या वामपंथी ने नहीं कहा कि इस राज में अमीरी और ग़रीबी के बीच खाई किस कदर बढ़ी है।*
*2017 में देश की महज 1 फीसदी आबादी के पास देश की 70 फीसदी दौलत इकट्ठी हुई, जबकि देश की 67 फीसदी आबादी की दौलत में महज 1 फीसदी का इजाफा हुआ।*
*वर्ष 2018 से 2022 के बीच देश में औसतन 70 करोड़पति रोज बनते रहे, भारत में हर अरबपति एक दशक में अपनी दौलत 10 गुना बढ़ा ले रहा है।*
*वहीं कपड़ा उद्योग का उदाहरण लें भारत का एक औसत श्रमिक या कर्मचारी यदि अपने उधोग के उच्च वेतन प्राप्त अधिकारी के बराबर आमदनी चाहे तो इसके लिए उसे 941 साल यानी उसकी पचास पीढ़ियां लग जाएगी।*
*ये सरकार का विकास का गुजराती शायलाक माडल है।*
*इस सरकार को 60 साल में जनता की मेहनत और पैसे से निर्मित सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र को बेच कर पैसा इकट्ठा करना है और निजी क्षेत्र को सौंपना है।*
*सबसे बड़ा देश का श्रमिक वर्ग किसान है 2017 में इस सरकार ने वादा किया था कि किसानों की आय दोगुनी हो जाएगी।*
*2023 आ गया है क्या हुआ?
क्या हुआ गारंटी तो छोड़ो* एमएसपी अभी भी लागत से दूर है। *किसानों को एमएसपी की गारंटी दे देंगे तो एक तरफ तो 80 करोड़ लोगों को मोदी जी के फोटो की छपी थैली में कम से कम 2024 तक के चुनाव जीतने तक तो अनाज बांटना है तो सरकार को ही सबसे पहले किसानों से महंगा अनाज खरीदना पड़ेगा।*
*और फिर अपने प्रिय कार्पोरेट मित्रों को अपने मुनाफे और बढ़ाने के लिए खरीदने के लिए सस्ते में किसानों की उपज और किसानों के कर्जदार होने पर उनकी जमीनें।*
*बड़े पूंजीपतियों के मुनाफे के लिए स्मार्ट शहर योजनाओं के लिए खेती और गांव छोड़कर आया असंगठित सस्ता प्रवासी मजदूर भी तो चाहिए।*
*80 करोड़ गरीब आबादी का लगभग 75 फीसदी हिस्सा गांवों में रहता है।*
*निजी क्षेत्र आम जनता की मेहनत से कमाए धन की बैसाखियों पर खड़ा किया जा रहा है।*
*सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र केवल सिकोड़ा ही नहीं जा रहा है बल्कि पूंजीपतियों को बेचा जा रहा है। आज देशी हैं कल विदेशी होंगे।*
*इस माध्यम से वंचितों के लिए आरक्षण भी छीना जा रहा है। सरकारी और सार्वजनिक क्षेत्र में स्थाई नौकरियां छीन कर आउट सौर्सिंग के माध्यम से हर क्षेत्र में अस्थाई और ठेकेदारी प्रथा जोरों पर है।*
*पूंजी को मुनाफे की लूट के लिए पूरी छूट और श्रम को भीख या गुलामी।*
आज परसाई जी होते तो जरूर कहते आजादी के 74 साल बाद तो *"गणतंत्र तो और ज्यादा ठिठुर रहा है"।*
*मेहनतकश* संयोजक विजय दलाल
15. संविधान - पाश
संविधान
यह पुस्तक मर चुकी है
इसे मत पढ़ो
इसके लफ़्ज़ों में मौत की ठण्डक है
और एक-एक पन्ना
ज़िन्दगी के अन्तिम पल जैसा भयानक
यह पुस्तक जब बनी थी
तो मैं एक पशु था
सोया हुआ पशु
और जब मैं जागा
तो मेरे इन्सान बनने तक
ये पुस्तक मर चुकी थी
अब अगर इस पुस्तक को पढ़ोगे
तो पशु बन जाओगे
सोए हुए पशु ।
16. गणतंत्र के अवसर पर- एम के आज़ाद
गणतंत्र दिवस के अवसर पर
देशी हथियारों का,
गन तंत्र का होता
यह विराट प्रदर्शन।
यह किसका है राष्टीय पर्व?
कौन उत्साहित है इस पर्व में?
मुट्ठीभर लुटेरे पूंजीपतिगण
या गरीबी, भुखमरी से जूझ रहे
विशाल मिहनतकस -जन।
हमे आजाद लोकतंत्र चाहिये,
पूंजी का गुलाम लोकतंत्र नही,
कॉरपोरेट्स का गुलाम लोकतंत्र नही,
कॉरपोरेट्स मुक्त लोकतंत्र,
मजदुरो किसानों का लोकतंत्र।
आज
किसान अन्नदाता है
व्यापारी, कॉर्पोरेट मुनाफाखोर
इस लिये होता यहाँ
शोषण-दमन घनघोर।
जब होगा मजदूर अन्नदाता
मुनाफे पर होगी बंदिश
कोई न होगा भूखा यहाँ
न होगी कोई रंजिश।
Useful collection of books. Must be enriched further and spread among the intellectuals and the workers who wish to read and educate themselves!
ReplyDeleteThanks, It is an excellent job. It will encourage them who want to study Marxism.
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